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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


इस बात ने तो चरणदास को भी, अपने विषय में विचार करने के लिए विवश कर दिया। वह विचार करता था कि गजराज तो केवल पाँचवी श्रेणी तक ही पढ़ा है और वह स्वयं दसवीं से अधिक पढ़ा है। गजराज की आय लाखों रुपये वार्षिक है, किन्तु उसकी अपनी केवल छः सौ रुपये वार्षिक।

फिर वह विचार करने लगा कि गजराज का पिता तो उसके पास लाखों रुपये छोड़ गया था। इन लाखों के आश्रय ही वह लाखों कमा रहा है। इस पर फिर उसे सुरेन्द्रकुमार की बात स्मरण हो आई। उसने वकालत पास की है। इतनी पढ़ाई करने के लिए कुछ तो रुपया उसके पास रहा होगा। फिर भी वह उस रुपये से लाभ नहीं उठा सका, न ही वह अपनी प्रैक्टिस जमा सका।

चरणदास ने कह दिया, ‘‘उसे मन्द-गति तो कहा नहीं जा सकता, हाँ मन्द-भाग्य वह अवश्य है। उसका पिता उसके लिए लाखों रुपया छोड़ जाता तो कदाचित् वह भी बीमा-कम्पनी चालू कर रहा होता।’’

‘‘हाँ, तुम्हारे कहने में कुछ तत्त्व तो है। परन्तु चरण! यही पूर्ण सत्य हो, ऐसी बात नहीं। धन आश्रय है, किन्तु सब-कुछ यही नहीं है। बिना परिश्रम और बुद्धि के धन कुछ नहीं कर सकता। इसके विपरीत परिश्रम और बुद्धि को धन के बिना बहुत-कुछ करते देखा है।

‘‘देखो, तुम साइकल पर स्कूल जाते हो। यह इसलिए कि तुम्हारी टाँगे काम करती हैं। साइकल तो तुम्हारी टाँगों की गति तीव्र करने वाली है।

‘‘हाँ, उन टाँगों को प्रयोग में लाने की योग्यता होनी चाहिए।’’

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