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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘इस अवस्था में तो और भी आवश्यक हो जाता है कि तुम इनके अध्यापक बन जाओ। इससे तुम्हें किसी अन्य व्यक्ति की ट्यूशन करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। यहाँ तुम्हें रहने के लिए स्वच्छ स्थान के अतिरिक्त पढ़ने के लिए खुला, स्वास्थप्रद, प्रकाशमय, कोलाहल से सर्वथा दूर, वातावरण मिलेगा।

‘‘मेरा काम बन जायेगा और तुम्हारी भी पढ़ाई हो जायगी। यदि तुमने उस बन्द मकान में रहते हुए अधिक परिश्रम किया तो तुम्हारे बीमार पड़ जाने की सम्भावना है। तुम्हारे अपने साथ तो जो होगा वह होगा ही, परन्तु उन सबको भी तुम्हारे हठ का दण्ड भोगना पड़ेगा जो तुमसे स्नेह रखते हैं।’’

इस अन्तिम बात ने चरणदास के मन में वास्तव में भय उत्पन्न कर दिया। वह समझता था कि कहीं उसको कुछ हो गया तो मोहिनी और उसके बच्चों का रखवाला फिर कौन है? इस सम्भावना से वह भीतर-ही-भीतर काँप उठा। वह गम्भीर हो गजराज के प्रस्ताव पर विचार करने लगा। मोहिनी तो गजराज के वक्तव्य को सुनकर आँखें मूँदकर बैठ गई थी। उसके मन में भी आशंकाएँ उठने लगी थीं और वह उनसे आँखें मूँदने का यत्न कर रही थी।

यों तो घर पर वे बहुत सफाई रखते थे। फिनाइल इत्यादि सफाई के उपकरणों का प्रयोग भी करते रहते थे। किन्तु सुमित्रा के पिता का नित्य सात-आठ घण्टे घर बैठकर पढ़ना स्मरण कर, वह घबरा उठी थी।

चरणदास ने पूछ लिया, ‘‘कहाँ रहने के लिए स्थान देंगे?’’

‘‘कोठी में पिछले दो कमरों का एक सेट तुमको मिल जायगा। उसमें दो कमरे, टट्टी और स्नानागार हैं। यदि तुम चाहों तो साथ वाला कमरा तुम्हारे अध्ययन के लिए मिल सकता है।’’

‘‘उन ‘आउट हाउसेज़’ में से क्यों नहीं?’’

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