ई-पुस्तकें >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘आओ, भीतर चलें।’’
ड्राइंगरूम में पहुँचे तो घर के सभी प्राणी वहाँ एकत्रित हो गए। सुभद्रा तो पिता के गले में बाँह डालकर कान में कुछ कहने लगी। सुमित्रा अपने पिता के समीप एक स्टूल रखकर बैठ गई। चरणदास ने अपनी पत्नी के अभिवादन का मुस्कराकर तथा सिर हिलाकर उत्तर देते हुए पूछ लिया, ‘‘तो फिर कल किस समय आऊँ तुम लोगों को लेने के लिए?’’
लक्ष्मी बोली, ‘‘आने की आवश्यकता नहीं है चरण! तुम इसको छोड़कर तो गए नहीं थे। जो लाया है, वह छोड़ भी आयेगा।’’
‘‘किस समय?’’
‘‘बहुत अधीरता है तो आज रात यहीं रह जाओ न?’’
गजराज को इस पर हँसी आ गई। वह बोला, ‘‘देखो चरण! धनी व्यक्ति अति स्वार्थी होता है और मैं भी वैसा ही हूँ। इस कारण मैं तुम्हारे सम्मुख एक प्रस्ताव रखने वाला था। कस्तूरी और यमुना तो मोटी बुद्धि के बच्चे हैं। बिना घर पर अध्यापक रखे ये स्कूल में चल नहीं सकते। इस कारण मेरा प्रस्ताव है कि एक-दो वर्ष तुम इस कोठी में, इनके अध्यापक बनकर रह जाओ तो हमारा बहुत उपकार होगा।’’
‘‘पर जीजाजी! मेरा तो इस वर्ष इण्टरमीडिएट और फिर बी० ए० तथा बी० टी० की परीक्षा देने का विचार है। इस सब में कम-से-कम चार वर्ष लग जायँगे।’’
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