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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘फिर बनवाने की आवश्यकता ही क्या है? सब गलाकर व्यापार में लगा दीजिए।’’

‘‘नहीं देवीजी! कभी विवाहादि के अवसर पर पहिनने के लिए मिल जाया करेंगे।’’

‘‘फिर कुछ बाल-बच्चे ही और हो जाते तो...।’’

गजराज हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘तुमने इलाज तो बहुत कराया है, परन्तु परमात्मा को यह स्वीकार न था। न हों तो क्या किया जाये?’’

लक्ष्मी ने कुछ लज्जित हो कह दिया, ‘‘मैंने बच्चों के लिए तो चिकित्सा नहीं कराई थी। मैं तो केवल कष्ट-निवारण के लिए ही औषधि लेती रही हूँ।’’

‘‘ठीक है। मैं कब कहता हूँ कि यों ही औषधि लेती रही हो? बच्चे न हो सकना क्या कोई कम कष्ट की बात है?’’

लक्ष्मी हार गई। उसको मानना पड़ा कि यदि एक लड़का-लड़की से अधिक नहीं हुए तो इसे परमात्मा की कुदृष्टि ही समझना चाहिए। फिर भी कोठी खाली पड़ी थी। इतनी बड़ी कोठी को झाड़-फूँककर साफ रखने के लिए दो नौकर रखे गये थे। रहने वाले चार ही प्राणी थे।

गजराज तो दिन-भर ठेकेदारी के काम में व्यस्त रहता था और लक्ष्मी या तो हिन्दी की कहानियाँ पढ़ती रहती अथवा नौकर-नौकरानियों को डाँटती रहती थी।

इस कोठी में आने के समय कस्तूरी नौ वर्ष का था और यमुना पाँच वर्ष की। कभी-कभी लाहौर से कोई संबंधी आया तो अतिथि-कक्ष खुल जाता और उसको उसमें ठहरा दिया जाता। सोने के दो कमरों के अतिरिक्त प्रायः सब कमरे खाली पड़े रहते थे।

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