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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘इसी प्रकार जिसे तुम झूठ कहती हो, वह बुद्धि के विकास से सत्य लगने लगेगी। जो आज सत्य है, कल वह असत्य भी हो सकता है।’’

सुमित्रा की समझ में बात नहीं बैठी। न ही उसको अपनी बूआ के विवाह तथा पति-पत्नी के सम्बन्ध की बातों में कुछ सार प्रतीत हुआ। लक्ष्मी यह तो समझती थी कि उसकी सब बातें कमल के पत्र पर जलबिन्दु के समान लुढ़क जाती हैं, फिर भी वह निराश नहीं थी। वह जानती थी कि ‘रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान’ एक सत्य है।

इन सब बातों का परिणाम एक दिन प्रकट हो ही गया। लक्ष्मी कह रही थी, ‘‘विषयभोग ही सन्तानोत्पत्ति में साधन है। सन्तान होने से स्त्री का सौन्दर्य क्षीण हो जाता है। अतः जो पति सौन्दर्य के आधार पर पत्नी से प्रेम करते हैं, उनका प्रेम अस्थायी होता है। सौन्दर्य के विलुप्त होते वह प्रेम भी विलुप्त हो जाता है।’’

लक्ष्मी ने अनुभव किया कि इस बात से सुमित्रा के शरीर में कँपकँपी हो आई है। आज उसने पहली बार मुख खोला और पूछा, ‘‘सन्तान होने से सौन्दर्य क्षीण क्यों हो जाता है?’’

‘‘सौन्दर्य, शरीर के गठन और बनावट को कहते हैं। सन्तान होने से शरीर का एक भाग टूटता है और वह बच्चा बन जाता है। अतः शरीर के गठन और बनावट में अन्तर आ जाता है।’’

‘‘हमारी माँ तो अभी भी बहुत सुन्दर है।’’

‘‘तुम्हारे जन्म से पहले के उनके सौन्दर्य की तुलना की जाय तो वह अब कुछ भी नहीं है। तुम्हारे पिता के विवाह के पूर्व पहले मैं ही तुम्हारी माँ को देखने के लिए गई थी। मुझे आज भी उसका उस समय का सौन्दर्य स्मरण हो आता है, तो चित पुलकित हो उठता है। परन्तु विवाह इस कारण नहीं हुआ था। वह तो तुम्हारी माँ से बात करने के बाद उसकी बुद्धि का विकास देखकर ही निश्चय किया गया था।’’

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