उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
उसके चले जाने पर मंगतराम को और उसकी पत्नी-सौभाग्य वती को बहुत दुःख हुआ था, परन्तु एक जीव के पालन-पोषण के भार से मुक्ति मिल जाने पर वे शीघ्र ही सन्तोष कर शान्त हो गये।
मोतीराम को घर से गये तीन वर्ष हो चुके थे कि वह एकाएक ही घर लौट आया। पूछने पर उसने बताया, ‘‘बाबा ! तुम्हारे घर में तो पेट-भर खाने को भी नहीं मिलता था। इस कारण खाने-पहनने का प्रबन्ध करने चल पड़ा था, परन्तु यहाँ से जाने के एक मास के भीतर ही पुलिस ने पकड़कर जेल में डाल दिया। जेल में उन्होंने मुझको दरी बुनने का काम सिखाया है और अब मैं दरी बुनने का काम करने के लिए गाँव में आया हूँ।’’
‘‘कबसे काम आरम्भ करोगे?’’
‘‘काम आरम्भ करने के लिए दो सौ रुपये चाहिए, जिससे कर्घा, सूत और अन्य सामान ला सकूँ।’’
‘‘तो यह दो सौ रुपया कहाँ से आयेगा?’’
‘‘बाबा ! तुम दोगे। तुमने मुझको जन्म दिया है, तो क्या यह दो सौ रुपया भी नहीं दोगे?’’
‘‘मेरे पास तो हैं नहीं।
‘‘तो किसी से ऋण ले दो।’’
‘‘ऋण कौन देगा?’’
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