उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
सब कर्मचारी प्रसन्न हो अति संतुष्ट मन अपने-अपने घरों को लौट गए। जब सब लोग चले गए तो फकीरचन्द ने माँ के पास जाकर कहा, ‘‘माँ तुमने तो बहुत अच्छा भाषण दे डाला। सब लोग तुम्हारे व्यवहार और बातों से संतुष्ट होकर गये हैं।’’
‘‘बेटा !’’ रामरखी ने कहा, ‘‘तुम्हारे पिता के देहान्त के पश्चात् जब मैं कपड़ा सीने की मशीन लाई थी और उसपर काम प्रारम्भ करने लगी थी, तो तुम्हारे सिर पर हाथ रखकर यह सौगन्ध खाई थी कि तुमको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, सबकी प्राप्ति में लीन करने के लिए यत्नशील रहूँगी। इस कारण जब तुमने बताया कि तुमको इस काम में इतना लाभ हुआ है, तो स्वाभाविक रूप में मुझको अपने बचपन की याद आ गई और मैंने तुमको और काम की प्राप्ति के लिए संलग्न करने में पूर्ण धर्म का स्मरण कराया है। मुझे इन निर्धन सहयोगियों को प्रसन्न और सन्तुष्ट करने से अधिक धर्म का कोई काम सूझ नहीं पड़ा। इस कारण अपनी तुच्छ बुद्घि के अनुसार मैंने आज के इस आयोजन का विचार कर लिया।
‘‘भगवान् तुमको सौ गुणा अधिक दे और तुम सौ गुणा ही अधिक अपने आस-पास निर्धन तथा असहाय लोगों के सहायक बने रहो।’’
‘‘माँ ! एक बात मैं भी तुमसे कहने वाला था। मैं समझता हूँ कि तुम अस्वीकार नहीं करोगी।’’
‘‘मैं अस्वीकार क्यों करूँगी?’’
‘‘तो माँ ! यह लो। यह मैं तुमकों अपनी कमाई में से दे रहा हूँ।’’ इतना कह उसने एक स्वर्ण कंगन अपनी जेब में से निकाल माँ के सामने रख दिया। ‘‘माँ ! यह तुम पहन लो। पिताजी की बीमारी में तुम्हारे सब आभूषण बिक गये थे। वे सब तो लाकर देने की मुझ में सामर्थ्य नहीं है। मैं तो केवल यह ही दे सकता हूँ।’’
माँ विस्मय में देखती रह गई। उसके मन में अनेकानेक भावनाएँ और कामनाएँ उत्पन्न होने लगीं। उसने विचार कर मुस्कराते हुए कहा, ‘‘बेटा ! मैं यह पहनती, जब तुम्हारा विवाह होता। अब तुम कहते हो तो अस्वीकार नहीं कर सकती।’’ इतना कह उसने वह कंगन पहन लिया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे।
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