उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द की हँसी निकल गई। वह आदमी विस्मय से फकीरचन्द का मुख देखने लगा। फकीरचन्द ने उसकी अवहेलना करते हुए, सामन भीतर रख लिया और माँ का हाथ पकड़कर, उसको भीतर चढ़ा लिया। इस सब में पाँच मिनट लग गये। तब प्लेटफार्म की सवारियाँ गाड़ी में भर गई थीं। कोई बिरला अभी इधर-उधर भटक रहा था। कोई-कोई इस डिब्बे के पास भी आता था, परन्तु इसकी चाबी लगी देख लौट जाता था।
अब डिब्बे में सात प्राणी हो गये थे। यद्दपि वहाँ भीड़ नहीं थी, इस पर भी डिब्बा छोटा होने के कारण भरा हुआ-सा लगता था।
लाहौर स्टेशन पर गाड़ी आधा घंटा खड़ी रही। जब गाड़ी चली तो भीतर बैठे आदमी ने फकीरचन्द का नाम-धाम, गन्तव्य स्थान और काम पूछकर परिचय प्राप्त करना आरम्भ कर दिया।
‘‘कहाँ जा रहे हो जी?’’
फकीरचन्द ‘जी’ सुनकर मुस्कराया और बोला, ‘‘झाँसी।’’
‘‘ओह, लम्बा सफर है !’’
‘‘जी।’’
‘‘लाहौर के रहने वाले हो?’’
‘‘रहने वाले थे।’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘आज से लाहौर छोड़ रहे हैं। इरादा है कि लौटकर नहीं आएँगे।’’
‘‘ओह ! क्यों छोड़ रहे हो?’’
‘‘जीविकोपोर्जन के लिए।’’
‘‘तो कहीं नौकरी लग गई है।’’
|