उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
इसपर फकीरचन्द को एक तरकीब सूझी। उसने कहा, ‘‘देखो माधो ! तुम मेरी एजेण्टी कर लो। जिस भाव पर चाहो, माल बेचो, मैं तुमको पाँच आने मन दे दिया करूँगा। माल उठाकर तुमको ले जाना होगा। माल ललितपुर स्टेशन पर तोला हुआ मंजूर होगा। रुपया माल उठाने के एक मास के भीतर दे देना होगा।’’
‘‘स्वीकार है बाबू !’’ माधो ने कहा।
बात तय हो गई। फकीरचन्द को इससे सन्तोष था कि माल के तोलकर बिकने से किसी पक्ष को भी गिला नहीं रहेगा कि उसको हानि हुई है।
फकीरचन्द की माँ को इस सब सौदे से, जो ललितपुर के व्यापारियों के साथ हुआ था, कुछ दुःख हुआ था; परन्तु फकीरचन्द ने समझाया, ‘‘माँ ! धोखा हो सकता है, परन्तु एक बात तो है कि मैंने जीवन में पहला सौदा किया है। हमारा इस पर दो सौ रुपया खर्च हुआ था और राजा साहब का भाग एक सौ रुपये से अधिक नहीं हो सकता। इस प्रकार एक मास में मुझे सात सौ लगभग लाभ हुआ है। मैं इससे सन्तुष्ट हूँ।’’
माँ को संतोष हो गया। फकीरचन्द ने कहा, ‘‘मुझको इन गाँव वालों पर बहुत अधिक विश्वास नहीं। विशेष रूप से चौधरी तो बातें बहुत बनाता है, परन्तु काम कुछ भी नहीं करता। इसपर भी मैं माधो इत्यादि को अवसर देना चाहता हूँ। वे यदि मेरे इस प्रयास से कुछ लाभ उठा सके, तो मुझको प्रसन्नता होगी। यदि गाँव वाले कमाएँगे, तो भी मैं इसको अपना ही लाभ समझूँगा।’’
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