उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
इतना कहते-कहते फकीरचन्द की आँखों में आँसू भर आये। माँ ने फकीर के आँसू देखे तो स्तब्ध रह गई। वह समझती थी कि फकीरचन्द उससे झगड़ा करेगा, परन्तु हुआ इसके विपरीत। वह आग्रह करने लगा। उसने पूछा, ‘‘यदि नहीं कहूँगी तो नहीं जाओगे?’’
‘‘माँ की आज्ञा-उल्लंघन का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।’’
‘‘तो जाओ; परन्तु अपनी सूचना भेजते रहना।’’
फकीरचन्द ने माँ के चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘‘माँ ! इन चरणों की कृपा से मैं अवश्य सफल हूँगा।’’
बीमा कम्पनी के कार्यालय से छुट्टी मिलने ही वह झाँसी जाने के लिये तैयार हो गया। माँ ने अपनी पूर्ण एकत्रित राशि, जो छः सौ रुपये से ऊपर थी, फकीरचन्द को दे दी। जिस सायंकाल को जाना निश्चित हुआ था, माँ एक बड़ा-सा बिस्तर बाँधे हुए बैठी थी। समीप ही बिहारीलाल कपड़े पहिने तैयार ‘बैठा था। फकीरचन्द दिन-भर मित्रों से मिलने में व्यस्त रहा था। गाड़ी के समय से दो घण्टे पूर्व वह आया, तो इतना बड़ा बिस्तर देख पूछने लगा, ‘‘माँ ! बहुत बड़ा बिस्तर बाँध दिया है। इतना क्या करूँगा ले जाकर?’’
‘‘हमें भी तो बिस्तर चाहिए। तीन के स्थान एक ही बाँध दिया है।’’
‘‘तीन? और कौन जा रहा है?’’
‘‘बिहारी और मैं।’’
‘‘तुम? पर माँ ! तुम्हें तो पीछे आना था।’’
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