उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द ने यह विज्ञापन पढ़ा तो उसका अपने गणित के मास्टर जयगोपाल का कथन स्मरण हो रहा। मास्टर जी ने कहा था–सफलता के लिए पूँजी आवश्यक है और भूमि भी पूँजी का एक रूप है। उस विज्ञापन में भूमि बिना मूल्य मिलने की बात थी। अर्थात् उसको अनायास ही अपनी मेहनत को कई गुणा करने के लिए पूँजी मिलने की बात थी। एक-दो दिन तक वह इस विज्ञापन पर मनन करता रहा और फिर उसने एक पत्र लिख दिया। उसने अपने मन में विचार किया था कि इस प्रकार पूँजी मिलने का यह अवसर तो भगवान् की कृपा से ही समझना चाहिए। उसने इस भूमि के विषय मे अन्य जानकारी प्राप्त करने के लिए पत्र लिखा था।
उसके पत्र के उत्तर में राजा साहब की जमींदारी के मैनेजर का एक पत्र और साथ ही नीले कागज पर नक्शा आ गया। पत्र में तो केवल यह लिखा था कि भूमि उपजाऊ है, परन्तु उसके जंगल कटवाने में कठिनाई है। इसी कारण उस भूमि को काम के योग्य बनाने के लिए दस वर्ष तक भूमि, बिना किसी मुजराने के दी जा रही है। शेष आकर भूमि देखी जा सकती है और पूछ-गीछ की जा सकती है।
इस पत्र के आने पर उसने अपनी माँ को अपनी योजना बता दी। माँ इस बात को समझ नहीं सकी। इस कारण वह पुत्र का मुख बितर-बितर देखती रह गई। माँ को विस्मय में मुख बनाये देख फकीरचन्द ने कहा, ‘‘माँ ! मैंने इस भूमि के मालिक को लिखा था और उसका पत्र आया है कि भूमि आकर देख लूँ और उनसे बात कर लूँ।’’
‘‘मैं यह नहीं पूछ रही फकीर ! मैं तो यह जानना चाहती हूँ कि इतना कठिन कार्य तुम कर सकोगे क्या?’’
‘‘माँ ! अभ्यास से सब कुछ किया जा सकता है।’’
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