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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


उसकी अन्तरात्मा की पुकार प्रबल सिद्ध हुई और वह गुमटी से बाहर चला आया। गाड़ियाँ तोली गईं और सत्रह रुपये आठ आने चुंगी वसूल कर ली गई। पूर्ण रकम की रसीद बना दी गई।

इसी प्रकार दिन-भर चलता रहा। सायंकाल वह घर पहुँचा तो उसकी पत्नी ने बच्चे के दूध पिलाने की बोतल माँगी। पत्नी का उदास मुख देख उसका उत्साह भंग हो गया। वह अपनी ईमानदारी और धर्म परायणता पर अति संतुष्ट मन घर आया था, परन्तु जब उसकी पत्नी ने कहा कि चम्मच से दूध देने पर बच्चा सब निकाल देता है, तो उसका मन बुझ गया। उसने आँखें नीची कर कहा, ‘‘जेब में पैसे नहीं थे।’’

‘‘कब तक ला सकेंगे?’’

‘‘अब तो पाँच तारीख को वेतन मिलने पर ही ला सकूँगा।’’

‘‘तब तक यह जीता रहेगा क्या? कल से इसने एक घूँट नहीं पिया।’’

धनराज की आँखें डबडबा आईं। उसकी आँखों के सामने वह चमचमाते तीन रुपये चक्कर काटने लगे। उसका मन भीतर-ही-भीतर बैठता जा रहा था।

रामरखी ने जब अपने पति की आँखों में आँसू देखे, तो चिन्ता प्रकट करते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ है?’’

धनराज ने आँखें पोंछते हुए कहा, ‘मैं ला तो सकता था, परन्तु इसके लिए पाप करना पड़ता।’’ इसपर उसने प्रातःकाल की घटना सुना दी। पूर्ण वृत्तांत सुनाकर उसने कहा, ‘‘मेरे मन ने पाप करना स्वीकार नहीं किया। अब अपनी विवशता को देख चित्त अधीर हो उठा है। मैं समझता हूँ कि तुम कोसती होगी कि किन भूखे-नंगों के घर में आई हो, जो बच्चे के लिए आठ आने तक भी खर्च नहीं कर सकते।’’

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