उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
नगर चैन में घड़ियाल खड़काकर समय का ज्ञान कराया जाता था। प्रति घंटा तो समय के अनुसार घड़ियाल बजता था और प्रति घड़ी के उपरांत एक दूसरा घड़ियाल बजता था जिसकी आवाज घंटोंवाले घड़ियाल से अधिक हल्की और मीठी होती थी। अतः सुंदरी ने मीना की सूचना सुन ली, समझ ली।
मीना यह कह कमरे से निकल गई। वह डर रही थी कि कोई उसे कमरे में सुंदरी से बात करते देख न ले।
सुंदरी ने इस कैद से निकलने का निश्चय कर लिया था। वह भय की सीमा का ज्ञान होने पर भी वहाँ से भागने के लिए तड़पने लगी थी। उसकी इच्छा माता-पिता से मिलने की प्रबल हो गई थी।
मध्य रात्रि का घंटा बजा और तब वह घड़ी की घंटी बजने की प्रतीक्षा करने लगी। वह बेचैन हो रही थी और उसे भय लग रहा था कि कहीं नींद की झपकी में समय न निकल जाए और उसे लेने के लिए आनेवाला निराश हो लौट न जाए। एक घड़ी का समय व्यतीत होने में ही नहीं आता था।
आखिर वह अपनी बेचैनी को रोक नहीं सकी। उसे समझ आया कि घंटी बजानेवाला कहीं सो गया है। वह समय से पूर्व ही निकल दीवार के साथ-साथ चलती हुई प्रांगण के पिछवाड़े में जा पहुँची। टट्टीखाने का दरवाजा दबाया तो वह खुल गया। इसके पीछे का दरवाजा खुला था और एक व्यक्ति वहाँ अँधेरे में खड़ा था।
अब उसे भय लग गया कि वह कहीं समय से पूर्व ही आ गई है। इस कारण वह वापस लौटनेवाली थी कि घंटी बजी और वह लौटती-लौटती रुक गई। इस समय पिछले खुले दरवाज़े से किसी ने झाँककर धीरे से कहा, ‘‘बीबी! चली आओ।’’
यह उसका पति नहीं था। आवाज से कोई बूढ़ा व्यक्ति मालूम होता था। सुंदरी बाहर निकलने से झिझकती थी। इस पर उस व्यक्ति ने पुनः कहा, ‘‘डरो नहीं। चली आओ। देर मत करो।’’
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