उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘बस यही मेरी उदासी की वजह है।’’
‘‘देखो बेटी! औरत के लिए सब्र और इस्तिक्लाल से इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं।’’
सुंदरी चुप रही। अम्मी ने ही बताया, ‘‘एक बार एक सिपाही यहाँ की किसी खूबसूरत शै को चुराकर भागता हुआ पकड़ा गया तो उसको उसी समय उसी पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी गई।’’
‘‘बहुत जालिम हैं यहाँ के लोग।’’
‘‘यह यहाँ का कायदा है।’’
अगले दिन अम्मी ने बताया, ‘‘सुंदरी! मैं एक दिन रात की छुट्टी पर जा रही हूँ और जमादार को कहकर जा रही हूँ। वह तुम्हारी रखवाली करेगा।’’
‘‘मेरी क्या रखवाली करेगा? पिछले दो महीने से तो यहाँ किसी प्रकार के भय की बात हुई नहीं। आज ही क्यों होगी?’’
‘‘यह यहाँ का कायदा है। जो कुछ मैं करती थी, वही अब एक दिन के लिए जमादार करेगा।’’
‘‘ठीक है। करने दो।’’
अम्मी के नगर चैन से जाने के दो घड़ी बाद मीना आई। वह पहले कभी कमरे में नहीं आती थी। आज कमरे में आई तो सुंदरी ने उसकी ओर प्रश्न-भरी दृष्टि से देखा। मीना ने कह दिया, ‘‘आज सुंदरी बहन बाहर बाग में नहीं आई। इस कारण मुझे यहाँ आना पड़ा है।’’
‘‘हाँ, तो क्या खबर लाई हो?’’
‘‘आधी रात के एक घड़ी बाद उस टट्टीखाने में चली जाना और जो कोई वहाँ मिले और जो वह कहे, वही करना। भगवान तुम्हारी रक्षा करेगा।’’
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