उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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करीमा अपने पति के मित्र के घर में कोई भी परिवर्तन कर सकने में असफल हुई तो उसने ही अपने घरवालों से कहा था कि वह अपने दोस्त के बाप का नया घर तामीर करवाने की राय कर दे। नूरुद्दीन का कहना था, ‘‘मगर वे इतने कंजूस हैं कि एक पैसा खर्च करना नहीं चाहते।’’
‘‘यह बात नहीं। वे कंजूस है या नहीं, यह तो मैं जानती नहीं; मगर वे जीना नहीं जानते। उनको चीज़ों की कीमत का इल्म नहीं। मैं चाहती हूँ कि उनको इस बात का इल्म कराने के लिए उनका नया मकान बनवाना चाहिए।’’
‘‘मगर रुपया तो उनका खर्च होगा?’’
‘‘वह अभी आप अपने पास से खर्च कर दीजिए, बाद में मिल जाएगा।’’
‘‘यही तो मुश्किल है। कैसे मिल जाएगा?’’
‘‘देखिए जी! मैं जानती हूँ, यह मिलना मुश्किल है। आपने मेरी शादी के लिए मेरे वालिद साहब को कुछ दिया था। मेरी माँ ने तब कहा था कि वह रुपया आपको वापस कर दिया जाए, मगर वालिद साहब बोले, ‘‘विवाहा पर जो कुछ खर्च होगा, वह उसमें डालकर, विवाह के बाद वापस कर देंगे।’ उसमें से मेरे कपड़ों वगैरा पर डेढ़-दो सौ खर्च दिया गया था और मेरे वालिद साहब उसमें से निकाले रुपयों की कमी पूरी कर वापस नहीं कर सके। मगर आपको उन पाँच सौ के दाम से कहीं ज्यादा की चीज मिल चुकी है।’’
‘‘तो तुम यह जानती हो?’’
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