उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘रात के आठ बजे हम रात का खाना खाते हैं। पेट भरकर खाते हैं और फिर गहरी नींद सोते हैं। मेरे श्वसुर कभी मिलने वालों से मिलने बैठक में जा बैठते हैं।’’
‘‘नौकरानी को क्या तनखाह देती हो?’’
‘‘बीस रुपए और रोटी-कपड़ा।’’
‘‘बहुत ज्यादा देती हो।’’
‘‘माताजी! मैं इस कीमत से कहीं ज्यादा का काम कर देती हूँ।’’
‘‘क्या काम करती हो?’’
‘‘उनके मुंशी का काम करती हूँ। फिर रोज़ तीन-चार घण्टे पढ़ती हूँ। इससे मेरे दिमाग में नई-नई बातें पैदा होती हैं। उनको करने से बहुत सुख मिलता है।’’
‘‘यह हमसे नहीं हो सकता। एक तो भगवान के पिता हुक्का पीते हैं। दूसरे, वे अपने आप अपना काम कर नहीं सकते। तीसरे, हम रात की बासी रोटी नहीं खा सकते। हमारे खाने में जब तक चटनी, अचार, मिर्च-मसाला और घी न पड़ा हो, बच्चों के गले से नीचे उतरता नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम इतना ज्यादा नौकर का खर्च नहीं दे सकते।’’
भगवानदास की माँ रामदेई की समझ में करीमा की बात नहीं आई। उसकी जीवन-मीमांसा भिन्न थी। वह स्वयं भी क्लर्क की लड़की थी। अब क्लर्क की पत्नी और क्लर्क की ही पतोहू बनकर यहाँ आई थी। दोनों स्थानों पर मर्द नौकरी करते थे। महीने के बाद तनखाह ले आते थे। वे सुबह पाँच बजे उठें, चाहे सात बजे उठें, उनके वेतन में वृद्धि नहीं होती थी। ठीक दस बजे दफ्तर में पहुँचना होता था। ठीक चार बजे फाइलें बन्द कर देने का नियम था। बीच में एक से दो तक विश्रान्ति होती थी। घर काम लाने की आवश्यकता नहीं थी। घर लाकर काम करने का कुछ मिलता नहीं था।
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