उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तसल्ली तो मेरे दिल को इम्तिहान देने से पहले ही थी।’’ नूरुद्दीन ने कह दिया–‘‘देखो दोस्त, मैं या तो पास हो जाऊँगा या फेल। दोनों हालतों में मुझे अपने वालिद के साथ काम करना है। रोज़ सुबह सात बजे काम पर जाना है और सायं पांच बजे लौटना है। वालिद कहते थे कि तीस रुपया पाकेट खर्चा देंगे। देखो कितनी तसल्ली की बात है!’’
दोनों हँसने लगे। नूरुद्दीन ने कहना जारी रखा–‘‘वे कहते थे कि मजदूरों की हाजिरी लगानी होगी। उनको देखते रहना है कि काम करते हैं या नहीं। कहीं पेशाब करने जाते हैं तो कितने वक्त के लिए ग़ैर-हाजिर रहते हैं। बस, अभी मेरा यही काम होगा। वहाँ न तो ऐलजैबरा के फार्मूले चाहिए, न ही तजारत के सवाल निकालने होंगे।’’
नूरुद्दीन का पिता खुदाबख्श मिस्त्री का कार्य करता-करता ठेकेदार हो गया था। वह स्वयं कुछ भी पढ़ा-लिखा नहीं था। लकीरें खींच-खींचकर हिसाब रखता था। कार्य-कुशलता तथा अनुभव के आधार पर उन्नति कर रहा था। उसने बीस राजगीर और मजदूर काम पर लगाए हुए थे और उनके वेतन तथा काम का हिसाब रखने में उसको कठिनाई अनुभव होने लगी थी। इसलिए, खुदाबख्श प्रतिदिन लड़के से पूछता रहता था–‘‘कितने दिन इम्तिहान के और हैं?’’
इसी प्रकार एक दिन खुदाबख्श ने कहा, ‘‘अब काम बढ़ गया है। मुझको तुम्हारी मदद की सख्त ज़रूरत है।’’
‘‘बस, ‘शनिच्छर’ वार शाम को छः बजे आखिरी पर्चा है।’’
‘‘और ‘ऐतवार’ को तुमको मेरे साथ काम पर जाना है।’’
‘‘क्या मैं और नहीं पढ़ूँगा?’’
‘‘मेरे काम के लायक बहुत पढ़ गए हो।’’
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