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उपन्यास >> सुमति

सुमति

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7598
आईएसबीएन :9781613011331

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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।


सुमति जब भी आत्मा-परमात्मा के विषय में बातें करने लगती थी, सुदर्शन जम्हाइयाँ लेने लगता था। तब सुमति बिस्तर में पति के सुखपूर्वक सोने का प्रबन्ध कर देती थी। सुदर्शन को इससे अपार सुख की अनुभूति होती थी।

छुट्टी के दिन कभी वे अपनी कोठी के लॉन में गार्डन चेयर्ज लगाकर बैठ जाते और बातचीत आरम्भ हो जाती तो सुमति उसे संस्कृत साहित्य की महिमा बताने लगती। एक दिन उसने बताया -

‘‘शशिना सह याति कौमुदी सहमेघेन तड़ित्प्रलीयते।
प्रमदाः पतिवर्त्मगा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनेरपि।।

अर्थात् चन्द्रमा जाता है तो उससे प्राप्त होने वाली चाँदनी भी उसके साथ चली जाती है। बादल जाते हैं तो बिजली चमकनी बन्द हो जाती है। जब जड़ पदार्थों में ऐसा साथियों का संयोग बना है हम चेतनों में पति-पत्नी का सम्बन्ध वैसा क्यों नहीं हो सकता?’’

इस प्रकार की उपमाएँ सुनकर वैज्ञानिक का मन विस्मय करता कि संस्कृत के ज्ञाता लोग किस प्रकार की उपमाएँ दिया करते हैं जो सर्वथा अयुक्तिसंगत होती है।

‘‘सुमति! क्या कवियों और साहित्यकारों को भगवान् के इस प्रगतिशील संसार में केवल मीठे स्वप्न लेना ही एक कार्य रह गया है?’’

‘‘इससे स्वप्न की बात कहाँ से आ गई। यह तो जाग्रतावस्था का सूचक है। संसार में साहित्यकार तो जीवित-जाग्रत प्राणी ही हो सकता है।’’

‘‘अच्छा, भला बताओ इसमें क्या सजगता है’’

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