उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘पर माँ! बी० ए०, बी० टी० तो एम० ए० से हल्की शिक्षा मानी जाती है।’’
‘‘यह तो बेटी, तुम जानो, परन्तु जब कोई एम० ए० पास मिलता हो तब बी० टी० की बात छोड़ी जा सकती है।’’
नलिनी ने विश्वास से कह दिया, ‘‘माँ! अभी समय नहीं आया। समय पर ऐसा भी मिल जाएगा।’’
माँ तो समझी नहीं, परन्तु जब यह बात श्रीपति को बतायी गई तो उसने कह दिया, ‘‘सम्भवतः नलिनी प्रो० सुदर्शन के विषय में कह रही है। जब से उसको कॉलेज में काम मिला है, नलिनी और वह बहुत घुले-मिले दिखाई देने लगे हैं।’’
‘‘पर बेटा!’’ माँ ने अपने सरल हृदय की बात बता दी, ‘‘जब घुल-मिल रहे हैं तो विवाह की बात चला दो और यह हो जाए तो इसे मैं स्वीकार कर लूंगी। वह किस जाति का है?’’
‘‘मैं नहीं जानता।’’
‘‘वैसे तो हम ब्राह्मण हैं। वे अपने देश के तो है नहीं। फिर भी लड़का तुम्हारा मित्र है, पढ़ा-लिखा है, पैसे वाला भी प्रतीत होता है। यदि नलिनी की यही इच्छा है तो तुम प्रबन्ध कर दो।’’
कात्यायिनी ने तो अपनी माँ को और कृष्णकांत को पत्र लिख दिए थे और वहाँ से स्वीकारोक्ति भी आ चुकी थी। अतः इस नई बाधा को वह अटपटा मानती थी, परन्तु जब उसने सुदर्शन की बात सुनी तो चुप रह गई। वह निष्पक्ष भाव से खड़वे को सुदर्शन से श्रेष्ठ नहीं मान सकी।
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