उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
विवाह को हुए एक मास से अधिक व्यतीत हो चुका था। सायं समय सुदर्शन प्रायः अपनी पत्नी के साथ घूमने निकल जाता था। एक दिन कनॉट-प्लेस में वे ‘एम्पायर स्टोर्स’ में कुछ सामान खरीद रहे थे कि नलिनी भी कुछ खरीदने वहाँ आ पहुँची। सुदर्शन तो अपने लिए बिस्कुट, कार्नफ्लेक्स आदि सामान खरीद रहा था। नलिनी को दुकान में प्रवेश करते नहीं देखा। सुमति ने नलिनी को इससे पूर्व केवल एक बार देखा था। विवाह से पूर्व जब उसकी ननदें तेल लगाने आई थीं, वह उनके साथ थी। नलिनी ने उसके गालों पर इत्र लगाया था। उस समय तो सुमति की आँखें बन्द थीं; परन्तु जब नलिनी इत्र लगा चुकी, तो उसने आँखें खोल, लगाने वाली का मुख देखा था। आज उसको वही मुख स्टोर में प्रवेश करता दिखाई दिया। यह मुख उसकी ओर ही आ रहा था।
एकाएक वह आने वाली रुकी और घूमकर दुकान के दूसरे कोने में चली गई। यह देख सुमति को सन्देह हो गया कि कदाचित् यह वह नहीं हैं। उसने अपना संशय निवारण करने के लिए अपने पति का ध्यान उसकी ओर आकर्षित कर पूछ लिया, ‘‘आप उस स्त्री को जानते हैं?’’
नलिनी इनकी ओर पीठ किए खड़ी थी। सुदर्शन ने देखा और पहचान लिया। उसने सुमति से पूछा, ‘‘तुम उसको कैसे जानती हो!’’
‘‘विवाह के दिन यह मुझको तेल लगाने आई थी।’’
‘‘हाँ, यह मेरी बहन बनी हुई है, परन्तु मुझसे नाराज़ है।’’
‘‘तभी! वह इस ओर ही आ रही थी, परन्तु हमें खड़ा देख उधर चली गई है। पर बहन-भाई में भी कभी नाराज़गी होती है?’’
‘‘प्रत्यक्ष प्रमाण सामने है।’’ सुदर्शन ने मुस्कराकर कह दिया।
सुमति ने कहा, ‘‘आपने विवाह पर इसे कुछ विशेष भेंट नहीं दी होगी।’’
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