उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
सुधाकर बोला, ‘‘पिताजी! मैं समझता हूँ कि आपने अपनी माँग उनके सम्मुख रखकर स्वयं को छोटा सिद्ध कर दिया है। जो नहीं माँगना चाहिए था वह तो माँग लिया और जो सब देते ही हैं उसके विषय में कहा कि उसे यदि चाहें तो चोरी-चोरी दे दें।’’
‘‘बेटा! उस विषय में कानून बन चुका है। मैं सरकारी आफिसर होते हुए दहेज किस प्रकार माँग सकता था?’’
‘‘डॉक्टर साहब ने ठीक ही तो कहा था कि कानून बनाने वाले मूर्ख हैं। दहेज तो सौ में नब्बे लोग स्वेच्छा और प्रसन्नता से देते हैं। उस विषय में कानून बना दिया कि न दिया जावे और जिसके देने में न युक्ति है न न्याय, उसके विषय में कानून बना दिया कि किया जाए।’’
‘‘यह तो मैं भी जानता हूँ कि कम-से-कम इस विषय में तो संसद् सदस्य मूर्खता कर बैठे हैं। परन्तु कोई सरकारी आफिसर किसी के सम्मुख कैसे कह अथवा मान सकता है कि कानून वाले मूर्ख है।’’
‘‘नलिनी देवी! चाय मँगवा दो। मैं तो समझता हूँ कि मुझे अपनी जीवन-संगिनी बनाने के लिए पुनः खोज करनी पड़ेगी।’’
‘‘तुम इतना पढ़-लिखकर भी मूर्ख बन रहे हो?’’
‘‘डैडी! क्या किसी सरकारी आफिसर को कोई सरकारी आफिसर मूर्ख कह सकता है?’’
‘‘प्राइवेट में कह सकता है।’’
तीनों हँस पड़े।
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