उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘भाभी! आपके इस कथन से मेरे शरीर में चंचलता उत्पन्न हो गई है जिसे रात-भर के यत्न से मैंने शान्त किया था उसे आपके संकेत मात्र ने ज्वालामुखी की भाँति विस्फुटित कर दिया है। इसी कारण संगीत भी अवरुद्ध हो गया है। कुछ काल तक तो मैंने उसे चलाने का यत्न किया किन्तु सफलता न मिलने पर स्वयं ही मौन हो गई हूँ।’’
‘‘विवाह न करने का निश्चय करते समय जीवन के अभाव को भरने के लिए तुमने कौन-सा विकल्प सोचा था?’’
‘‘संगीत से बढ़कर और क्या हो सकता था?’’
‘‘परन्तु यौवन-प्लावन के सम्मुख यह संगीत बेचारा तिनके के समान प्रवाहित होता देखा गया है?’’
‘‘इसी कारण तो इसे मौन करती-करती मैं स्वयं ही मौन हो गई हूँ।’’
‘‘यह अति कठिन प्रयास है; नलिनी इसी प्लावन में बह गई है। सुना है, अभी तो वह सुखी है, परन्तु कहा नहीं जा सकता कि यह स्थिति कब तक चलती रहेगी।’’
सुमति अति कठिन व्याख्या करने ही वाली थी कि इतने में कल्याणी आ गई और समीप बैठते हुए पूछने लगी, ‘‘क्यों, सुमति ने क्या राय दी है? यह स्वयं तो अपने होने वाले पति को देखने के लिए आई थी।’’
‘‘माँजी! मैं देखने नहीं, स्वयं को दिखाने के लिए आई थी। हाँ, उस दिखाने-दिखाने में स्वयं भी देखने का अवसर सुलभ हो गया था। परन्तु मैं आपको बताऊँ कि मैंने क्या देखा था? वही कुछ, जो मुझे सर्वथा अप्रिय था। अब मैं कहती हूँ कि उस दिन जो कुछ देखा था वह तो कृत्रिम था। आधे घण्टे के मौन निरीक्षण से वास्तविक वस्तु देखी नहीं जा सकी थी और जो कुछ उस समय देखकर मैं समझी थी वह तो सब मिथ्या ही सिद्ध हुआ।’’
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