उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
|
327 पाठक हैं |
बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
सुमति ने भी उसे चुप देख अपना तानपुरा भूमि पर रख दिया और उससे पूछने लगी, ‘‘निष्ठा बहन! क्या बात है? आज एकाएक क्या हो गया है? पहले तो ऐसा प्रतीत हुआ था कि आज तुम बहुत प्रसन्न हो। तुम्हारे स्वर और ध्वनि में कम्पन एवं लय में चंचलता तथा ध्यान में विसर्जन प्रकट होने लगा और अब तुम किसी अन्य को मौन करती-करती स्वयं मौन हो गई हो।’’
मुस्कराते हुए सुमति की ओर घूमकर निष्ठा ने कहा, ‘‘रात माँ मुझसे कह रही थीं कि मेरे विवाह का प्रबन्ध किया जा रहा है। मेरे लिए प्रस्तावित वर को भैया देख आए हैं। मुझसे भी देखने के लिए पूछा गया था।
‘‘मैंने माँ को कहा था कि मैं आज प्रातःकाल के संगीत-अभ्यास के उपरान्त इस विषय में अपने मन की बात बता सकती हूँ। मेरा अभिप्राय था कि विवाह करने अथवा न करने के विषय में मत व्यक्त करूँगी। माँ ने समझा कि मैं वर देखने के विषय में बताने वाली हूँ। माँ अभी यहाँ आकर बात पूछने वाली हैं।’’
‘‘मैं रात-भर इस विषय पर विचार करती रही हूँ। इससे मैं इस निष्कर्म पर पहुँची थी कि मैं विवाह नहीं करूँगी। इसके लिए मैं अपने यौवन को मौन रहने के लिए कह रही थी।’’
‘‘आप आईं तो मेरे मन में आया कि आपसे भी राय कर ली जाए। अतः आपसे प्रश्न पूछा तो आपने बताया कि विवाह से सम्बन्धित कर्तव्यों का पालन न करने से अभावों की उत्पत्ति होती है जो घातक भी सिद्ध हो सकते हैं।’’
|