उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
तीनों हँसने लगे। डॉ० सुदर्शन उन सब उपायों के नलिनी द्वारा प्रयोग की कथा स्मरण कर रहा था। सुमति ने अपनी सम्मति देते हुए कहा, ‘‘मैं उन सब उपायों को जानती हूँ। यद्यपि कभी किसी पर मैंने अभ्यास नहीं किया परन्तु मैं यह जानती हूँ कि मैं चाहूँ तो सफलता पूर्वक उनका प्रयोग कर सकती हूँ। परन्तु मुझे उनके प्रयोग की आवश्यकता नहीं; हाँ, यदि ये आज्ञा करें तो मैं इसकी सेवा के लिए तैयार हूँ।’’
‘‘तो क्या तुम मुझे इतना हीन-बुद्धि समझती हो कि जिस बात की तुम्हें आवश्यकता नहीं उसके लिए मैं तुमको आज्ञा दूँगा?’’
‘‘तो ठीक है, मैंने निश्चय किया है कि तीन वर्ष तक मैं सुमन की सेवा करूँगी। जब तक वह अपने पाँवों से चलने-फिरने और अपनी इच्छा से खाने-पहनने नहीं लगता तब तक मुझे पूर्ण शक्ति और समय उसके लिए ही लगाना चाहिए।’’
‘‘आप क्या कहते हैं भैया?’’ नलिनी ने मुस्कराकर डॉ० सुदर्शन से पूछा।
‘‘इसमें मेरे बताने को कुछ भी नहीं है। सुमति की प्रत्येक इच्छा मेरे लिए आज्ञा के रूप में है।’’
‘‘आज आपसे इस प्रकार का आश्वासन पाकर मैं स्वयं को अधिक निर्भय अनुभव करने लगी हूँ। मैं समझती हूँ कि अब तो मुझे आपकी सेवा का भी कुछ अधिक अवसर मिल जाएगा।’’
नलिनी और सुदर्शन दोनों ही इस बात का अर्थ नहीं समझ सके। किन्तु समय पर सुदर्शन को इसका अर्थ स्पष्ट होता गया।
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