उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
दूसरा परिच्छेद
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पिछला कथानक सन् १९२॰-२१ का था। प्रथम यूरोपीय युद्ध के बाद ईसाई मिशनरियों का भारतवर्ष पर विशेष अभियान आरम्भ हुआ। इससे पूर्व तो भारत में धर्म-प्रचार के लिए केवल अंग्रे़ज़ी और पुर्तगाली ईसाई ही आते थे। परन्तु युद्ध के बाद दुनिया का राजनीतिक चित्र बदलता प्रतीत होने लगा और इस बदलती परिस्थिति के साथ ईसाइयों के धर्म-प्रसार में भी परिवर्तन आया था।
प्रारम्भ में तो ईसाइयों ने अपना काम बड़े-बड़े नगरों में आरम्भ किया। भारतवासियों के शिष्टवर्ग में प्रभु यीशु मसीह के प्रेम का प्रसाद देने के लिए उन्होंने सरकारी शिक्षा के प्रसार में अपने स्कूल और कॉलेज खोले। सरकारी अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त युवकों को ऊँची पदवियाँ, बड़े वेतन और विशेष सेवाओं के लिए राय साहब, राय बहादुर, सरदार बहादुर इत्यादि उपाधियाँ मिलती थीं। इस वर्ण से ईसाईयों ने अपना प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास किया। परन्तु जब उनकी इस नीति का बंगाल में ब्रह्मसमाज, मद्रास में थियोसोफिकल सोसायटी और उत्तरी भारत में आर्यसमाज ने विरोध आरम्भ किया, तो ईसाईयों की नीति में अन्तर आया और इन्होंने अपना प्रचार भारतीय शिष्टवर्ग तथा बड़े-बड़े स्कूलों-कॉलेजों में करने के स्थान पर छोटी जातियों में करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने स्कूलों के स्थान पर यतीमखाने खोलने में अपनी शक्ति लगानी आरम्भ कर दी। इसका भी विरोध हुआ। आर्यसमाज ने इस चाल को निष्प्रभाव कर दिया। रही-सही बात महात्मा गांधी के अछूतोद्धार आन्दोलन ने समाप्त कर दी।
इस कारण ईसाईयों को अपने कार्यक्रम पर विचार करने के लिए विवश होना पड़ा और इस सम्बन्ध में इन्होंने ‘वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ क्रिश्चियन मिशन्स इन दि ईस्ट’ की शिलांग में एक कांफ्रेंस की। इसमें उन सब संस्थाओं के प्रतिनिधि आए थे जो भारत, इण्डोनेशिया, चीन, मलाया इत्यादि देशों में इसाई धर्म का प्रचार करने के लिए इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा अमेरिका से धन एकत्रित करके भेजती थीं।
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