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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘यह विवाह से पूर्व वर्जित है।’’

‘‘माँ का पुत्र से प्यार भी?’’

‘‘वह तुम्हारी माँ नहीं है।’’

‘‘बहिन तो हो सकती है!’’

‘‘वह तुमसे विवाह करना चाहती है, मैंने सुन लिया था।’’

‘‘किया तो नहीं?’’

‘‘चलो चौधरी के पास। तुम दण्ड के भागी हो।’’

बड़ौज चुप रहा। साधु ने उसको बाँह से पकड़कर ऐसे ले जाना चाहा जैसे वह उसका बन्दी हो। बड़ौज ने झटका देकर अपनी बाँह छुड़ा ली और बोला, ‘‘मैं भाग नहीं रहा, चलो चलता हूँ।’’

चारों ओर अँधेरा था। सब खाना-पीना करके सोने की तैयारी में लगे थे। वे दोनों बस्ती से गुज़रते हुए बस्ती के पार, ठीक किनारे पर, चौधरी की झोंपड़ी के बाहर आ खड़े हुए। साधु ने आवाज़ दी, ‘‘चौधरी! बाहर आओ!’’

धनिक झोंपड़ी से निकल आया। बड़ौज ने यह कहकर कि वे दोनों बात करें और वह स्वयं भीतर सामान रखने जा रहा है, भीतर चला गया। वह भीतर गया और थैला अपनी माँ के पास रख और अपनी टैंट से रुपये निकालकर माँ को देते हुए बोला, ‘‘माँ! तुम इनको समेटो, मैं अभी आता हूँ!’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं, साधु झगड़ा करने के लिए आया है।’’

‘‘क्या झगड़ा करता है?’’

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