उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘माँ तो कहती है कि हो गई है। कल माँ और बाबा में बातचीत हुई है। माँ ने कहा था कि मेरा विवाह हो जाना चाहिए। बाबा कहता था कि साधु से पूछूँगा। बाबा आज बहुत देर तक साधु से बातें करता रहा है। न जाने उसने क्या कहा है कि माँ और बाबा परस्पर बहुत चिन्ता में बातचीत करते रहे हैं।’’
‘‘क्या कहा होगा उसने?’’
‘‘मैं क्या जानूँ? तुम साधु से मिलकर पूछो, नहीं तो...’’
‘‘नहीं तो, क्या?’’
‘‘पहले पूछ लो फिर बताऊँगी।’’ इतना कह उसने बड़ौज को छोड़, उससे पृथक् होकर कहा, ‘‘अब जाओ, तुम्हारी माँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।’’
‘‘तुम कैसे जानती हो यह?’’
बिन्दू ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया और वह भाग गई। बड़ौज उसको अँधेरे में बस्ती की ओर विलीन होता देखता रहा। जब वह अन्धकार में विलीन हो गई तो वह भी बस्ती की ओर चल पड़ा। वह अभी दो पग ही गया था कि उसको अपने कन्धे पर किसी का हाथ रखने का अनुभव हुआ। वह एक सतर्क युवक की भाँति एकदम घूमकर कन्धे पर रखे हाथ को पकड़ बैठा।
‘‘छोड़ो।’’ यह साधु पुरोहित की आवाज़ थी।
‘‘ओह!’’ बड़ौज के मन में भय समा गया। वह सोचने लगा कि साधु ने उसको बिन्दू से आलिंगन करते देख लिया है और यह कबीले के नियम के विरुद्ध है। इस कारण वह काँप उठा। साधु ने धीरे से कहा, ‘‘मैंने तुम दोनों को गले मिलते देख लिया है।’’
बड़ौज ने साहस पकड़कर कहा, ‘‘तो फिर क्या हुआ?’’
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