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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


सूजा अपने पति से सन्तुष्ट थी। उसके दो बच्चे हो चुके थे। दोनों लड़के थे। वह अपने पिता के कबीले के साथ घूम चुकी थी और उसको बहुत बातों का ज्ञान था। इसी कारण वह चौधरी को अपने मन की बात सुनाने में संकोच नहीं करती थी। सूजा के पति के मन में चौधरी के लिए मान था। उसने कह दिया, ‘‘चौधरी! इसकी बात का क्रोध नहीं करना। लुग्गी बहिन वहाँ बहुत सुखी थी, परन्तु पिछले वर्ष उसके घरवाले का स्वर्गवास हो गया है और उसने दूसरा विवाह कर लिया है। यह नया पति अच्छा आदमी नहीं है। इसीसे सूजा कह रही है।’’

‘‘तो वह सुखी नहीं है?’’

‘‘आमुख के मर जाने के पश्चात् वह यहाँ कबीले में लौट आना चाहती थी, परन्तु पुरोहित ने सिर हिलाकर कह दिया, ‘भगवान को स्वीकार नहीं’।’’

सूजा ने फिर कहा, ‘‘भगवान की बात वह मन से कहता है, भगवान तो बोलता ही नहीं।’’

धनिक मुख देकता रह गया। सूजा और उसका पति रस्सी बटने में लीन थे। धनिक मन में विचार करता था कि बड़ौज ठीक कहता है। यदि साधु भगवान की बात झूठ कहता था तो पापी था। वह पापी था तो उसकी हत्या से पाप नहीं हुआ। अतः वह दण्ड का भागी नहीं है।

फिर भी उसको दण्ड तो देना ही चाहिए। केवल इस कारण कि पंचायत ने निर्णय दिया है। यह निर्णय गलत है, परन्तु वह इस निर्णय की अवहेलना तो भागकर ही कर सकता है। यहाँ तो भोज के लोभ में कबीले का कोई भी व्यक्ति पंचायत के निर्णय को गलत नहीं कहेगा। मद्य-मांस और भाँति-भाँति के पकवान भोज में मिलने वाले थे।

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