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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘परन्तु आक्रमण तो उसने किया था।’’

‘‘पहले मुक्का मैंने मारा था।’’

‘‘यह तो साधारण बात है। छुरे से वार तो उसने किया था।’’

चौधरी के मन में पंचायत के निर्णय पर संशय हो गया। फिर भी वह इस निर्णय की अवहेलना करने की क्षमता नहीं रखता था। वह विस्मय में मुख देखता रह गया। सोना अपने पति के मन के भावों को समझ गई। उसको चौधरी के निर्णयों को सुनते बीस वर्ष हो गए थे। वह जानती थी कि पंचायत के निर्णय को चौधरी भगवान के आदेश से कम नहीं मानता।’’

सोना ने चौधरी से पूछा, ‘‘तो दण्ड कहाँ से दोगे?’’

‘‘कुछ रुपये तो कल बड़ौज लाया है और कुछ किसी से ऋण ले लूँगा।’’

ऋण की बात सुन तो सोना के मन में भी दुःख हुआ। लोग उनसे ऋण लेने के लिए आते थे। आज वे स्वयं ऋण लेने वाले बन रहे थे।

बड़ौज के बिन्दू से पादरी के पास जाकर विवाह के निर्णय की बात चौधरी ने अपनी पत्नी को नहीं बताई। कबीले में इस अपराध का दण्ड मृत्यु ही था, परन्तु तब तक ही जब तक कि कबीले में ही रहे। एक बार कबीले से चला जाए और पादरियों के संरक्षण में पहुँच जाए तो वह सुरक्षित हो जाता था। कबीले वाले चाहते हुए भी उसको दण्ड नहीं दे सकते थे।

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