उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘इस प्रकार मज़दूरी कर कितना नित्य कमा लेते हो?’’
‘‘चार-पाँच आना तक।’’
‘‘आज अभी तक कितना पैदा किया है?’’
‘‘अभी तो कुछ भी नहीं हुआ।’’
‘‘खाना खाओगे?’’
बड़ौज ने प्रातः से अब तक कुछ खाया नहीं था। इससे वह उसका मुख देखता रहा। पादरी ने उसे चुप देख कहा, ‘‘अभी यहीं ठहरो। भोजन कर लो, फिर बाद में और बात करेंगे।’’
बड़ौज बैठने के लिए स्थान ढूँढ़ने लगा था। पादरी ने बरामदे में रखी एक कुर्सी की ओर संकेत कर कहा, ‘‘उस पर बैठ जाओ।’’
बड़ौज अपने मैले कपड़ों और साफ-सुथरी कुर्सियों में अन्तर देख बैठने में झिझक अनुभव कर रहा था। पादरी ने उसे बाँह से पकड़ते हुए कहा, ‘‘आओ भाई! बैठ जाओ। भोजन में अभी कुछ समय है।’’
बड़ौज बैठ गया तो दोनों पादरी भीतर चले गए। समय पर बड़ौज को भीतर बुलाया गया और उसकी वाश-बेसिन में हाथ और मुँह धोने के लिए कहा गया। फिर उसको उसी मेज़ पर खाने के लिए बैठाया गया, जिस पर वे दोनों एक अंग्रेज औरत बैठे थे।
बड़ौज संकोच में बैठ रहा था और उसने भोजन भी संकोच से ही किया। भोजन के बाद पुनः हाथ धोए गए। फिर स्टेशन से आने वाले पादरी ने उससे पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’
उसने स्टोप्सगंज के पादरी का दिया हुआ नाम बता दिया, ‘‘बड़ौज ग्रीन।’’
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