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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘मेरे अपराध क्षमा कर देने पर मैं आपका धन्यवाद कर रही थी।’’

‘‘इसका फल तो देवताओं ने मुझे दे दिया है।’’

‘‘क्या दिया है?’’

‘‘तुम मिल गई हो।’’

‘‘हाँ, यदि देवता मेरे मन में बड़े साहब के लिए घृणा पैदा न करते तो मैं यहाँ न आती।’’

एक और सप्ताह बीतने पर सौ-सवा-सौ घायलों को छोड़कर अन्य सबको अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। अब ये नाग लोग पंचायत करने लगे थे कि वे कहाँ जाएँ।

धनिक का विचार था कि सब-के-सब ईसाई हो जाएँ। सोना का विचार था कि इस प्रकार ईसाई होने से कोई लाभ नहीं। वे इस बस्ती में रहें और यदि उनकी अन्तरात्मा उनको ईसाई होने की प्रेरणा दे तो ईसाई बनें, अन्यथा अपने देवताओं को मानें।

पादरी इस बात से इन्कार नहीं कर सका। उसकी धारणा थी कि उस बस्ती में रहने पर एक न एक दिन ये नाग लोग ईसाई हो जाएँगे।

वह जानता था कि इनको सुखों की आदत पड़नी चाहिए। वह सुख यदि इनको ईसाइयों द्वारा उपलब्ध होगा तो ये सब प्रभु के गल्ले की भेड़ें बन जाएँगे।

कुछ लोगों ने कहा कि वहाँ उनके अपने देवता नहीं हैं। सोना ने उनको एक मार्ग बताया और तदनुसार नदी के किनारे नाग देवता की प्रतिष्ठापना कर दी गई।

बस्ती का पादरी इस बात को पसन्द नहीं करता था। परन्तु सोफी के समझाने पर कि यह एक स्वतः बदल रही परिस्थिति है, इसमें बाधा डालने से प्रतिक्रिया होगी और सब-के-सब लोग बस्ती छोड़ जाएँगे।

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