उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘जब देवताओ की ऐसी ही इच्छा है तो मैं डरती नहीं। परन्तु मैं बताती हूँ कि मेरा मन कहता है कि मैंने कोई पाप नहीं किया। मैंने स्वेच्छा से आत्मसमर्पण किया था। मैं साहब से प्रेम करने लगी थी।’’
धनिक इस बात का अर्थ नहीं समझ सका। सोना ने समझाया, ‘‘अपने-अपने देश के देवताओं के नियम हैं। उनके देवता का नियम है कि प्रेम-सम्बन्ध से पाप वहीं होता। जब प्रेम न रहे तो सम्बन्ध टूट सकता है...। इसीसे अब मैं सम्बन्ध छोड़ आई हूँ।’’
धनिक हँस पड़ा और बोला, ‘‘यह प्रेम क्या वस्तु है, जो कभी होता है और कभी नहीं होता?’’
‘‘बड़े साहब की हमारे साथ सहानुभूति और व्यवहार ऐसा था कि मैं उसे बड़ा व्यक्ति मानती थी। और उसके प्रति भक्ति को ही प्रेम मानती हूँ बाद में मालूम हुआ कि वह शैतान है तो मैं उसके प्रति भक्ति के स्थान पर घृणा करने लगी और इस कारण उसको छोड़कर आ गई हूँ। अब मेरा उससे प्रेम नहीं है।’’
‘‘इसको ही हमारे देवता अनिष्ठा कहते हैं और इसका दण्ड मृत्यु है।’’
‘‘तो मैं उन देवताओं के अधीन नहीं होऊँगी।’’
धनिक ने हँसते हुए कहा, ‘‘क्या तुम्हारे वश में है?’’
‘‘नहीं होगा, तो मारी जाऊँगी।’’
धनिक ने बताया, ‘‘मैं ईसाई हो गया हूँ। पादरी ने मुझे बताया है कि दया और क्षमा करने वाले को भगवान सीधा स्वर्ग देता है। इसलिए मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है।’’
सोना ने धनिक के चरण स्पर्श किए। धनिक को जब इसका अनुभव हुआ तो उसने पूछा ‘‘यह क्या कर रही हो?’’
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