उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘अच्छी बात है। इस पर भी मैं यही कह सकता हूँ कि खर्चा कम-से-कम किया जाए तो अधिक-से-अधिक दुखित लोगों की सहायता हो सकती है।’’
‘‘यह तो हम कर ही रहे हैं।’’ पादरी का कथन था।
अगले दिन उठते ही सोफी ने वार्डन से कहा, ‘‘मैं यहाँ कई दिन के लिए रहने को आई हूँ, इस कारण सरकारी घोड़े लुमडिंग भेजने का प्रबन्ध कर दीजिए।’’
‘‘कब तक रहने का विचार है?’’
‘‘अभी निश्चय नहीं कर सकी। फिर भी दो सप्ताह तक तो रहूँगी ही। इतने दिन तक इन घोड़ों को यहाँ बाँधकर रखना ठीक नहीं है।’’
वार्डन ने एक आदमी के द्वारा घोड़ों को लुमडिंग भेज दिया और सोफी तथा सोना अस्पताल देखने के लिए चली गईं। अस्पताल में दो सहस्त्र से ऊपर रोगी थे। दो सौ खेमे लगाए गए थे और प्रत्येक खेमे में दस से पन्द्रह तक घायल पड़े थे। दस नर्सें थीं, एक-एक के अधीन बीस-बीस खेमे थे। वे इतने रोगियों को देख भी नहीं सकती थीं। पूर्ण अस्पताल के लिए केवल दो डॉक्टर थे।
घायलों को अस्पताल में आए बीस दिन तक हो चुके थे। अनेक घायल ऐसे थे जिनकी अभी पहली पट्टी भी नहीं हो पाई थी। अनेक ऐसे हो गए थे जिनके घावों में कीड़े पड़ गए थे। घायलों को भूमि पर चटाइयों पर लिटाया गया था।
सोफी वहाँ पहुँची तो दोंनों डॉक्टर आ गए। घायलों की शोचनीय अवस्था देखकर सोफी ने कहा, ‘‘यदि आपके पास उचित प्रबन्ध नहीं है तो आपने सरकार को लिखा क्यों नहीं?’’
हमने लिखा तो है। परन्तु सरकार की अपनी मजबूरी है। वह यह प्रकट होना राज्य के हित में नहीं मानती कि इतने बड़े युद्ध और फिर उस में तीस हज़ार की हत्या की बात पब्लिक में फैल जाए।’’
|