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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...

प्रथम परिच्छेद

1

चौधरी धनिक का लड़का बड़ौज दस कोस की पैदल यात्रा कर अपनी बस्ती में पहुँचा। वनवासी पहाड़ियों की यह बस्ती असम देश की एक पहाड़ी की तलहटी में घने जंगल से घिरी हुई थी। इस बस्ती में पचास के लगभग झोंपड़े थे और उनमें इतने ही परिवार रहते थे। ये लोग वन्य पशुओं का शिकार करते थे और अपनी आवश्यकताओं के लिए उन पशुओं की खालें तथा अस्थियाँ बेचने के लिए समीप के नगरों में जाते रहते थे। यह बस्ती सभ्य और असभ्य संसार की मध्यवर्ती सीमा पर थी।

जब, जहाँ भी मानवों का समूह बनता है, वहीं उनका कोई नेता, चौधरी, प्रधान अथवा राजा बन जाता है। यह आवश्यक भी होता है। मानव-प्रकृति एक समान नहीं होती और उच्छृंखल प्रकृति वालों को नियंत्रण में रखने के लिए सर्वमानित नेता अर्थात् प्रधान बनाना आवश्यक हो जाता है। यह प्रथा सभ्य-असभ्य नगरों में बसे हुओं अथवा वनवासियों, सबमें समान रहती है। उस सरगने अथवा चौधरी की मान-प्रतिष्ठा ही उस क्षेत्र में, जिसमें उसका काम होता है, व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होती है।

इसी आवश्यकता के अनुसार नागाओं के इस कबीले का चौधरी धनिक अपने कबीले में सम्मानित और प्रतिष्ठित माना जाता था। अपनी युवावस्था में वह अति बलशाली और सबसे अधिक बुद्धिमान पिता का पुत्र समझा जाता था। इसका पिता भी चौधरी था। यौवनारम्भ में धनिक ने कबीले की सर्वश्रेष्ठ सुन्दर कन्या सोना से विवाह कर लिया था।

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