उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
सोना के माता-पिता इस विवाह से प्रसन्न नहीं थे, परन्तु सोना के हठ के सम्मुख उनको नतमस्तक होना पड़ा। वे समझते थे कि धनिक के पिता ने अपनी पदवी का अनुचित लाभ उठाकर उनकी लड़की को बरगलाया है। सोना के धनिक को स्वीकार करने पर ही कबीले के सब परिवारों ने इस संबंध को स्वीकार किया था और इस अवस्था में सोना के माता-पिता को चुप रह जाना पड़ा। उनका अपना विचार तो अपनी लड़की को कबीले के बाहर एक नागा युवक के साथ, जो अब खेती-बाड़ी करने लगा था, विवाह करने का था। इस सम्बन्ध में वह कई बार सोना के माता-पिता से मिलने के लिए भी आया था। परन्तु सोना का चयन तो धनिक ही था।
इस बात को बीते बीस वर्ष हो गए थे। धनिक के माता-पिता का देहान्त हो गया था और अब धनिक स्वयं चौधरी बन गया था। सोना का लड़का अब अपना तीर कमान लेकर स्वतन्त्र रूप में शिकार खेलने के लिए जाता था और माता-पिता को अतिप्रिय था। सोना इच्छा कर रही थी कि वह उस जैसी ही सुन्दर कन्या के साथ विवाह कर उनका कुल चलाएगा। परन्तु कबीले में उसकी दृष्टि में अपने लड़के के लिए कोई लड़की ही नहीं जँचती थी।
फिर भी बड़ौज की बहू का निर्वाचन हो चुका था। आज से तीन वर्ष पूर्व। वह भी कबीले की ही एक लड़की थी। उसका नाम था बिन्दू। लड़के-लड़की में बात हो चुकी थी। परन्तु लड़की के माता-पिता को बताया नहीं गया था। बिन्दू की विवाह-योग्य आयु हो गई है अथवा नहीं, इसका निश्चय होना था; और यह निश्चय कबीले के पुरोहित साधु को करना था।
प्रथा के अनुसार इस निश्चय के होने की सूचना लड़की के माता-पिता को मिलती तो वे उसको वधुओं के पहनने योग्य उत्तरीय से ढाँप देते और फिर इस बात का समाचार कि अमुक लड़की के विवाह का समय आ गया है, कबीले में फैल जाता था। उचित युवक उसके लिए यत्न करते और माता-पिता तथा चौधरी की अनुमति से विवाह हो जाता।
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