उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
महादेवी ने कह दिया, ‘‘आप जैसे धनी-मनी व्यक्ति के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है।’’
‘‘आपके साहबज़ादे अमेरिका में कितना कुछ खर्च कर आये हैं?’’
उत्तर रविशंकर ने दिया। उसने कहा, ‘‘मेरा एक मकान करोलबाग में है। उसका भाड़ा पाँच सौ रुपये महीना आता है। मेरा विचार था कि वह धन लड़के को प्रतिमास भेज दिया जाएगा। मगर इसने वहाँ जाते ही एक फर्म में काम करना शुरू कर दिया था। इससे वह अपना खर्चा चलाता रहा है। मुझे यहाँ से भेजने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यहाँ तक कि यह वहाँ से हवाई जहाज में अपनी मेहनत से पैदा किए धन से ही आया है।’’
इस पर अब्दुल हमीद नाक-मुख सिकोड़ समीप बैठे यासीन से बातें करने लगा।
पिता ने पुत्र से पूछा, ‘‘क्या बीवी भी बाप की भाँति कंजूस है?’’
‘‘अब्बाजान! मैं खुद ही उसे बहुत कुछ नहीं देता। दूँ तो वह खुले हाथ मेरी कमाई लुटाने में हम लोगों से पीछे नहीं रहेगी।’’
पिता इस व्यंग्य को नहीं समझा। वास्तव में यासीन पिता के स्वभाव को जानता था। वह कट्टर मुसलमान नहीं था। परन्तु वह हिन्दुओं और निर्धनों से घृणा करता था। इस कारण उसने प्रज्ञा के बचाव के लिए व्यंग्य कसा था। परन्तु पिता इसका अर्थ नहीं समझा। उसने कह दिया, ‘‘ठीक करते हो। इस क्लर्क की बीवी के हाथ में बहुत कुछ नहीं देना चाहिए।’’
‘‘परन्तु अब्बाजान! वह मेरी दुकान का हिसाब-किताब रखती है और उसे सब मालूम है कि मेरी कितनी पूँजी है।’’
‘‘परन्तु वह बैंक से निकालने अथवा जमा कराने तो नहीं जाती?’’
‘‘नहीं, वह दुकान पर नहीं जाती। परन्तु मैं नित्य दुकान से किताबें ले आता हूँ और वह मेरी किताबों की खाना-पूरी कर छोड़ती है।’’
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