उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
ज्ञानस्वरूप का यह कथन संतोषजनक था। मगर सालिहा जब रात को सोने लगी तो एक नई बात उसके दिमाग में चक्कर खाने लगी। कब्र भी तो कोई आरामगाह नहीं हो सकती। वहाँ तो कीड़े-मकोड़े नोच-नोच कर उसको खाने लगेंगे।
मगर उसी वक्त उसको ख्याल आया कि रूह को कीड़े खा नहीं सकेंगे। इसलिए रूह को तकलीफ भी नहीं होगी। इस पर भी इस समस्या पर विचार करते-करते उसे रात के दो बजे के उपरांत नींद आई।
इस रात भी जब वह सोई तो फिर दूसरे दिन, दिन चढ़े तक सोती रही। सब प्राणी उठ अपने-अपने काम पर लगे हुए थे। ज्ञानस्वरूप और प्रज्ञा इत्यादि प्रातः का अल्पाहार लेने के लिए खाने के कमरे में जा पहुँचे थे। सरस्वती ने खादिमा से पूछा, ‘‘छोटी अम्मी कहाँ हैं?’’
लतीफी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘अम्मी! उनके कमरे का दरवाजा बन्द है। मतलब यह कि वह सोई हुई हैं।’’
‘‘नहीं लतीफी!’’ प्रज्ञा ने कहा, ‘‘जाओ, दरवाजा खटखटा कर जगाकर यहीं ले आओ। उनको बैड-टी पिला देंगे।’’
लतीफी यही आज्ञा तो चाहती थी। वह भागी हुई गई और दो मिनट में ही सालिहा नाईट गाउन में वहाँ आ पहुँची।
ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘अम्मी! मेरा दुकान पर जाने का वक्त हो रहा है। इसलिए सलाम करने के लिए अम्मी की याद आई तो पता चला कि आप सो रही हैं।’’
‘‘नहीं यासीन! मैं लतीफी के वहाँ आने से पहले ही जाग दरवाजा खोल चाय का इन्तजार करने लगी थी। यह आई और बोली कि आप सब खाने के कमरे में हैं और यहीं मुझे याद कर रहे हैं। इसलिए यहाँ आ गई हूँ।’’
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