उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मैंने पूछा था, ‘तो क्या हुआ?’’
‘‘तुम्हारे पिता कहने लगे, ‘‘हनुमानजी कृपानिधान हैं। उनकी सहायता से ही मैं सैक्रेटरी बन गया हूँ।’’
‘‘मेरी हँसी निकल गई और ये श्रीमान् मुझसे कई दिन तक नाराज रहे। उसके उपरान्त ये नियमित रूप से प्रति मंगल के दिन हनुमान के मन्दिर पर प्रसाद चढ़ाने जाते रहे हैं। घर आकर इस डाक्टर विष्णुसहाय की प्रशंसा के पुल बाँधा करते थे।’’
‘‘आज इनके मित्र की श्रद्धा-भक्ति और मन्दिर जाने का भाँडा फूट गया है। वह तो वहाँ चाट खाने और मिठाई खरीदने जाया करते हैं और यह श्रीमान्, तुम्हारे पिता यह समझते थे कि इन हनुमानजी की कृपा से ही यह छः सौ रुपये महीना वेतन लेने वाले रिटायर होने के समय बाईस सौ रुपये लेते थे।’’
‘‘उन दिनों हम ‘हैवलोक-स्क्वेयर’ में रहते थे और आज हम इस आलीशान कोठी में रहते हैं।’’
‘‘तुम्हारे पूज्य पिताजी समझते हैं कि यह उन्नति महावीर हनुमानजी के मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने का ही फल है।’’
‘‘मैं जब भी इनको कहती थी कि यह उन्नति इनकी योग्यता के कारण है तो ये मुझे मूर्ख कह दिया करते थे और सदा गवाह के रूप में अपने दूसरे मित्र का नाम ले दिया करते थे।’’
‘‘आज इनके मित्र इनको बता गए हैं कि उनकी उन्नति और इनकी उन्नति के अपने-अपने कुछ एक गुणों के कारण थी। उनका हनुमान के मन्दिर में जाने से कुछ भी सम्बन्ध नहीं। मन्दिर का सम्बन्ध तो चाट खाने और मिठाई खरीदने से था।’’
रविशंकर का ध्यान माँ-पुत्र में हो रहे वार्तालाप की ओर चला गया था। इस कारण उसने अपनी पत्नी के कथन में संशोधन कर दिया। उसने कहा, ‘‘देखो शिव! तुम्हारी माँ तुम्हें ठीक बात नहीं बता रही। मैं यह मानता हूँ कि मेरी उन्नति का रहस्य हनुमानजी की कृपा ही है और डाक्टर विष्णुसहाय ने मेरी बात की पुष्टि की है।’’
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