उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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उस दिन रविशंकर के घर तीन बजे मध्याह्नोत्तर तक गोष्ठी चलती रही। समाप्त हुई विष्णुसहाय के एकाएक बातें बन्द कर यह कहने पर कि उसे चार बजे एक स्थान पर काम है, इसलिए वह छुट्टी चाहता है।
ज्ञानस्वरूप इत्यादि भी उठ चलने को तैयार हो गये। महादेवी ने लड़की से पूछ लिया, ‘‘अब फिर कब आओगी?’’
‘‘माताजी! जब आप कहेंगी, चली आऊँगी। मुझे यहाँ तक आने में कष्ट नहीं होता। हाँ, कुछ महीने उपरान्त फिर आपको मेरी सुध लेने आना पड़ेगा।’’
‘‘परमात्मा भला करेगा।’’
प्रज्ञा इत्यादि मकान से बाहर निकल अपने ‘अरुणाचल’ लॉज की ओर चल पड़े।
जब ये लोग गये तो उमाशंकर अपने क्लीनिक में जाने से पहले अपने बेडरूम में चला गया, परन्तु वहाँ शिव खड़ा था। बड़े भाई ने उसे देखा तो पूछ लिया, ‘‘शिव! कुछ बात है?’’
‘‘हाँ, दादा! मैंने कमला से कुछ कहा था जिस पर वह बोली कि वह मेरी बड़ी भाभी है। मैं इसका अर्थ समझने यहाँ आया हूँ।’’
‘‘तो यह कोई लैटिन ग्रीक भाषा का वाक्य है, जो इसका अर्थ नहीं समझे?’’
‘‘दादा! लौटिन ग्रीक तो नहीं, परन्तु इस लड़की से मैं शादी की लालसा करने लगा था।’’
‘‘ओह...!’’ वह छोटे भाई का मुख देखने लगा।
‘‘तुमने उससे क्या कहा था?’’ उमाशंकर ने शिव से पूछ लिया।
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