उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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बारह बजे डाक्टर विष्णुसहाय आ गया। रविशंकर अपने मित्र की प्रतीक्षा में ड्राइंगरूम में आ बैठा था। उस समय उमाशंकर भी अपने क्लीनिक को बन्द कर वहाँ आ गया था। शिव तो परछाईं की भाँति पिताजी के साथ ही था। वह पिताजी पर विश्वास नहीं करता था।
प्रातः के अल्पाहार के उपरान्त शिव पिताजी के साथ-साथ बाहर-भीतर जाता-आता रहा तो रविशंकर ने पूछ लिया, ‘‘तुम्हें आज कुछ काम नहीं?’’
‘‘काम तो है, परन्तु कल तक जो था, वह अब नहीं रहा। पहले काम की परीक्षा दे चुका हूँ। उसका परीक्षाफल अभी निकला नहीं। इस कारण आज मैं दूसरा काम करने लगा हूँ।’’
‘‘क्या दूसरा काम करने लगे हो?’’
‘‘वयोवृद्ध पैंतीस वर्ष तक सरकारी नौकरी करते हुए सैक्रेटरी पद का पाँच-छः वर्ष का अनुभव रखने वाले पूज्यनीय पिताजी की सेवा के लिए नियुक्त हो गया हूँ।’’
‘‘किसने नियुक्त किया है?’’
‘‘स्वयं नियुक्त हुआ हूँ और उस नियुक्ति का फल अति श्रेष्ठ पाने का यत्न कर रहा हूँ।’’
‘‘मगर मैं तुम्हारी इस सेवा का तुम्हें कुछ भी प्रतिकार नहीं दूँगा।’’
‘‘वह तो मिल रहा है।’’ शिव का कहना था, ‘‘मेरे खाते में वह प्रतिक्षण जमा हो रहा है।’’
‘‘कितना बैक में जमा हुआ है?’’
‘‘अभी तो यह नया सेवा-कार्य करते हुए मुझे कुछ घण्टे ही हुए हैं। इसलिए वहाँ बैक में बहुत कम रकम है। परन्तु महीना समाप्त होते-होते एक बड़ी राशि जमा हो जाने की आशा है।’’
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