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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
सरस्वती के मन में आया कि कमरे का दरवाजा बन्द कर अपने मन में उठ रहे उद्गारों को खुद ही खुदा का नाम लेकर शान्त कर ले, मगर प्रज्ञा ने उसे पलंग पर ले जाकर बैठाया। वह चिन्ता में माँ के मुख पर देखने लगी थी।
सरस्वती ने कहा, ‘‘मुझे तकलीफ कुछ नहीं। सिर्फ मन में कुछ पुरानी याद उठ पड़ी थी।’’
‘‘मगर अम्मी! दुःखद् याद्दाश्तों को भुलाने के दो ही तरीके हैं। एक तो उनको अपने किसी पहले जन्म के बुरे कर्मों का फल समझ परमात्मा का उसके लिए शुक्र-गुजार होना कि उसने वह कर्मफल दे दिया है और अब वैसे बुरे काम से बचाए।
‘‘एक दूसरा भी तरीका है। अगर मालूम हो कि किस कर्म का वह फल है तो उसे अपने प्रियजनों को बताकर उसके लिए अफसोस जाहिर कर दिया जाए। इससे फिर वैसा बुरा काम करने से बचा जा सकता है।’’
‘‘मगर मुझे तो याद नहीं कि मैंने कुछ वैसा किया हो, जिसका नतीजा वह हो सकता था।’’
‘‘तब तो अक्ल यही कहती है कि वह किसी पिछले जन्म में किया कर्म ही था जिसका फल इतना दुःखदायी हुआ है कि उसकी याद से भी रोना आ जाता है। मगर अम्मी, वह तो हो गया। उसका फल भोग लिया गया और आगे खुदा से दुआ करनी चाहिए कि फिर वैसा कोई काम करने की ख्वाहिश भी न हो।’’
‘‘यह ठीक है, मगर मैं तब ही तो इस किस्म का अमल नहीं कर सकती, जब पता चले कि पहले मैंने क्या किया था?’’
‘‘नतीजे पर गौर कर उसकी वजह का इल्म हो सकता है, जैसे भूख लगने पर खाने का इल्म हो जाता है। अन्धेरा हो जाने पर सूरज के गायब हो जाने का इल्म होता है। इस तरह अगर परमात्मा को न्यायकर्ता मानें तो हुई तकलीफ को देखकर उसकी वजह का भी अन्दाज लगाया जा सकता है।
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