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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
इस समय ज्ञानस्वरूप बोल उठा, ‘‘अम्मी! प्रज्ञा ठीक कहती है। तुम्हारे में यह औसाफ न होता तो तुम मुझे घर से निकाल दिए होतीं।’’
सरवर हँस पड़ी। प्रज्ञा ने कहा, ‘‘कमला! आज अपने ‘कैमरे’ से अम्मी की एक बहुत अच्छी तस्वरी उतारो। फिर उसको बड़ा बनवाकर और बढ़िया फ्रेम लगवाकर ड़्राइंगरूम में लगवा दूँगी।’’
कमला उठी और अपने कमरे में जाकर अपना कैमरा ले आई। उसने एक के स्थान दो फोटो लिए। एक अकेली अम्मी का और एक सबका। उसने कैमरा सैट करके बटन दबा दिया और फिर स्वयं भी सामने आकर बैठ गई। दस सैकिण्ड बाद ‘क्लिक’ हुई और चारों का चित्र खिंच गया।
रात भोजन करते समय ज्ञानस्वरूप ने पूछा, ‘‘अम्मी ! जब इनसान पैदा होता है, तो उसका क्या मजहब होता है?’’
‘‘मजहब तो जब उसे कलमा पढ़ाया जाता है, तब बनता है।’’
‘‘और वह कौन पढ़ाता है?’’
माँ मुख देखती रह गई। कुछ विचार कर बोली, ‘‘तुम्हें तुम्हारे अब्बाजान ने तुम्हारे कान में पढ़ाया था।’’
‘‘मगर अब्बाजान तो परमात्मा को मानते ही नहीं?’’
‘‘मैं समझती हूँ कि वह कट्टर दीनदार मुसलमान हैं और...।’’ माँ कहते-कहते रुक गई।
‘‘हाँ! और क्या?’’
‘‘कुछ नहीं!’’ इतना कहते-कहते वह खाना छोड़ उठ खड़ी हुई और खाने के कमरे में से निकल गई। पति-पत्नी और लड़की तीनों देखते रह गए। एकाएक ज्ञानस्वरूप के मुख से निकल आया, ‘‘आज फिर अम्मी रोने अपने कमरे में चली गई हैं।’’
प्रज्ञा ने भी खाना छोड़ दिया और भागकर माँ के पीछे-पीछे गई। यदि वह एक क्षण पीछे रह जाती तो सरस्वती द्वार बन्द कर लेती। वह द्वार बन्द करने से पहले कमरे के बाहर खड़ी हो आँचल से आँखें पोंछ रही थी कि प्रज्ञा वहाँ जा पहुँची। उसने माँ की बाँह पकड़ कमरे के भीतर ले जाते हुए पूछा, ‘‘अम्मीजान! तबियत कैसी है? क्या तकलीफ है?’’
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