उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मैं अभी जाकर टेलीफोन से पता करता हूं कि किस-किससे भेंट कर सकूँगा। तब ही निश्चय करूँगा कि कितने दिन दिल्ली में लगेंगे। माँ! इस पर भी तीन-चार दिन तो लगेंगे ही।’’
घर पर तेज मध्याह्नोत्तर तीन बजे पहुंचा और स्नानादि कर सांयकाल की चाय ले, वह अपने काम पर जुट गया। भारत सरकार के विदेश विभाग के प्रवक्ता तथा जवाहर लाल नेहरू, सुरक्षा मन्त्री कृष्ण-मेनन, उप-प्रधान मन्त्री श्री देसाई तथा अन्य पन्द्रह-बीस व्यक्तियों की सूची बना वह उनसे भेंट के लिए समय निश्चय करने लगा। एक घण्टे के टेलीफोन पर प्रयत्न से दो दिन का कार्यक्रम बना सका। उसी सायंकाल से वह नेताओं तथा जानकारों से भेंट करने चल पड़ा।
यशोदा ने सायंकाल सात बजे गाड़ी पकड़ी और मैत्रेयी का समाचार लेने चल पड़ी।
हस्पताल पहुंच उसे पता चला कि मैत्रेयी की माताजी की अवस्था बहुत बिगड़ी हुई है। डाक्टरों से मैत्रेयी ने प्राईवेट वार्ड में स्थान पाने का यत्न किया था, परन्तु डाक्टरों का कहना था कि रोगी का रात तक जीवित रह सकना भी कठिन है। इस कारण इस समय स्थान बदलने से कुछ लाभ नहीं होगा।
मैत्रेयी का भोजन यशोदा लायी थी। वह उसने मोटर में बैठकर ही खाया और रात माँ के पास जनरल वार्ड में ही रहना ठीक समझा।
यशोदा प्रातःकाल समाचार लेने का आश्वासन दे अपनी कोठी में लौट आयी।
तेज भी अपने काम से लौट आया था और आते ही वह लन्दन भेजने के लिए रिपोर्ट तैयार करने लग गया।
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