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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

सोना फिर ससुराल आयी। अबकी बार आने के साथ ही घर का सारा भार सोना को सौंप कर सोना की सास ने गृहस्थी से छुट्टी ले ली। कभी घर का काम करने का अभ्यास न होने के कारण सोना को घर के काम करने में बड़ी दिक्कत होती, इसके लिए उसे रोज़ सास की झिड़कियाँ सहनी पड़तीं। सोना ने तो खेलना, खाना और तितली की तरह उड़ना ही सीखा था। गृहस्थी की गाड़ी में उसे भी कभी जुतना पड़ेगा यह तो उसने कभी सोचा ही न था। किन्तु यह कठिनता महीने पन्द्रह दिन की ही थी। अभ्यास हो जाने पर फिर सोना को काम करने में कुछ कठिनाई न पड़ती।

घर में रात दिन बन्द रहने की उसकी आदत न थी। बाहर जाने के लिए उसका जी सदा व्याकुल रहता। यदि कभी खिलौने वालों की आवाज़ सुनती या ‘‘चना जोर गरम’’ की आवाज़ उसके कान में पड़ती तब वह तड़प-सी जाती। अपना यह कैदखाने का जीवन उसे बड़ा ही कष्टकर मालूम पड़ता किन्तु सोना बहुत दिनों तक अपने को न रोक सकी। वह सास और पति की आँख बचाकर गृह-कार्य के पश्चात् कभी खिड़की, कभी दरवाजे के पास, जब जैसा मौका मिलता जाकर खड़ी हो जाती। बाहर का दृश्य, हरे-भरे पेड़-पत्तियाँ देखकर उसे कुछ शांति मिलती। बाहर ठंडी हवा को स्पर्श करके उसमें जैसे कुछ जीवन आ जाता। वह जानती थी कि खिड़की या दरवाजे के पास वह कभी किसी बुरे उद्देश्य से नहीं जाती, फिर भी पति नाराज होंगे, सास झिड़कियाँ लगावेंगी, इसलिए वह सदा उनकी नज़र बचा कर ही यह काम करती। मुहल्ले वालों को यह बात सहन न हुई। कल की आयी हुई बहू, बड़े घर की बहू, सदा खिड़की-दरवाज़ों से लगी रहे। अवश्य ही यह आचरण-भ्रष्ट है। धीरे-धीरे आसपास के लोगों में सोना के आचरण की चर्चा होने लगी। पुराने विचार वाले पर्दा के पक्षपातियों को सोना की हर एक हरकत में बुराई छोड़ भलाई नज़र ही न आती थी। मुहल्ले के बिगड़े-दिल शोहदे, सोना के दरवाजे पर से दिन में कई बार चक्कर लगाते और आवाज़ें कसते।

किन्तु न तो सोना का इस तरफ ध्यान होता और न उसे इसकी कुछ परवाह थी। वह तो प्रकृति की पुजारिन थी। खिड़की-दरवाजों के पास वह प्रकृति की शोभा देखती थी; लोगों की बातों की ओर तो उसका ध्यान भी न जाता था।

इसी बीच में, किसी काम से सोना की सास को कुछ दिन के लिए गाँव पर जाना पड़ा। अब पति के आफ़िस जाने के बाद वह स्वच्छन्द हिरनी की तरह फिरा करती थी। कोई रोक-टोक करने वाला तो था ही नहीं; अब कभी-कभी वह चिक से बाहर चली जाया करती। आस-पास की कई औरतों से जान-पहचान भी हो गयी। वे लोग सोना के घर आने-जाने लगीं। सोना भी कभी-कभी लुक-छिप के दोपहर के सन्नाटे में उनके घर हो आती। सोना के बारे में, उसके आचरण के विषय में लोग क्या बकते हैं, सोना न जानती थी। वह तो उन्हें अपना हितैषी और मित्र समझती थी। वही लोग, जो सोना से घुल-मिल कर घंटों बातचीत किया करते, बाहर जाकर न जाने क्या-क्या बकते। धीरे-धीरे इसकी चर्चा विश्वमोहन के कानों तक भी पहुँची। इन सब बातों को रोकने के लिए उन्होंने अपनी माँ की उपस्थिति आवश्यक समझी। इसलिए माँ को बुलावा भेजा। साथ ही सोना को भी समझा दिया कि वह बहुत सँभल कर रहा करे।

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