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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

माँ के सामने यह बड़ा जटिल प्रश्न था। वह समझ ही न सकी कि इसका क्या उत्तर दें, किन्तु चतुर जानकी ने तुरन्त बात बना ली। बोली—सोना! विवाह हो जाने पर अच्छे-अच्छे गहने-कपड़े मिलते हैं। इसीलिए विवाह होता है।

सोना—बुआ जी, फिर क्या होता है?

जानकी—फिर सास के घर जाना पड़ता है। सो मैं तुझे अपने साथ ले चलूँगी।

—सो तो पहिले ही से जानती थी बुआ जी, कि विवाह करने पर सास के घर जाना पड़ता है; पर मैं कहीं न जाऊँगी। अभी से कहे देती हूँ, विवाह करो चाहे न करो।—कहती हुई सोना खेलने चली गयी।

नन्दो का मातृ-प्रेम आँखों में आँसू बन कर उमड़ आया, बोली—अभी बचपना है; बड़ी होगी तब सब समझेगी।

जानकी—फिर तो ससुराल से एक-दो दिन के लिए भी मायके आना कठिन हो जायगा भौजी। देखो न! मैं ही चार-छै दिन के लिए आती हूँ तो रात-दिन वहीं की फिकर लगी रहती है। जहाँ गृहस्थी का झंझट सिर पर पड़ा सब खेलना कूदना भूल जाता है जब तक विवाह नहीं होता तभी तक का खेलना-कूदना समझो।

नन्दो—जानकी दीदी, तुम लोगों की कृपा से मेरी सोना सुखी रहे। जैसे उसका नाम सोना है उसके जीवन में सोना ही बरसता रहे।

सोना का विवाह हो गया। रामधन तिवारी की लड़की का विवाह गाँव भर में एक नयी बात थी। इस विवाह में मंगलामुखी के स्थान पर आगरे से भजन-मंडली आयी थी जो उपदेश के अच्छे-अच्छे भजन गा के सुनाया करती थी। गहने-कपड़े सब नये फैशन के थे। लहँगों का स्थान साड़ियों ने ले लिया था। जूते थे, मोज़े थे, रूमाल थे, पाउडर की डिब्बी, सुगंधित तेल और भी न जाने क्या-क्या था जिनकी नन्दो और जानकी ने कल्पना तक न की थी। गाँव की औरतों को नन्दो बड़ी खुशी-खुशी सब चीजें दिखाया करती। देखनेवाली सोना के सौभाग्य की सराहना करती हुई लौट जातीं। उनकी आँखों में आज सोना से अधिक सौभाग्यशाली कोई न थी। जिस दिन सोना को ससुराल के सब गहने-कपड़े पहिनाकर नन्दो ने पुत्री का सौंदर्य निहारा तो उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। किसी की नज़र न लग जाय, इस डर से उसने छिपाकर बालों के नीचे एक काजल का टीका लगा दिया। जिसने सोना को देखा, वही क्षण भर उसे देखता रहा। सोना सचमुच में सोना ही थी।

विदा का समय आया। माँ-बेटी खूब रोयीं। जब सोना तिवारी जी के कमर से लिपट कर रोने लगी तो तिवारी जी का भी धैर्य जाता रहा, वे भी जोर से रो पड़े। सोना विदा हो गयी। विदा के बाद तिवारी जी को पुत्री के विच्छेद का दुःख भी था, साथ-ही-साथ आत्मसंतोष भी कि ‘‘पुत्री अच्छे घर ब्याही गयी है, सुख में रहेगी।’’

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