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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

‘‘इधर अपने पास ही कोई रियासत है न? वहीं के राजा साहब नदी के उस पार शिकार खेलने जायँगे। महीना-पँद्रह दिन का काम है मनोहर। खूब अच्छा रहेगा। खूब पैसे मिलेंगे। मैं तुम्हें भी दिया करूँगी। पर इतना वादा करो कि जब तक बापू न लौटकर आवें तुम रोज मेरे साथ डाँड़ चलाया करोगे।’’

‘‘यह कौन सी बात है तिन्नी? यदि तू मान जा तो मैं तेरे साथ जीवन भर डाँड़ चलाने को तैयार हूँ।’’

‘‘तो जैसे मैंने कभी इन्कार किया हो! नेकी और पूछ-पूछ। तुम मेरा डाँड़ चलाओ और मैं इन्कार कर दूँगी?’’

‘‘तिन्नी, तो तू मुझसे ब्याह क्यों नहीं कर लेती? फिर हम दोनों जीवन भर साथ-साथ डाँड़ चलाते रहेंगे।’’

क्षण भर के लिए तिन्नी के चेहरे पर लज्जा की लाली दौड़ गयी। किन्तु तुरंत ही वह सँभलकर बोली—‘‘कहने के लिए तो कह गये मनोहर। किन्तु आज मैं ब्याह के लिए तैयार हो जाऊँ तो?’’

‘‘तो मैं खुशी के मारे पागल हो जाऊँ।’’

‘‘फिर उसके बाद?’’

‘‘फिर मैं तुम्हें रानी बनाकर अपने आपको दुनिया का बादशाह समझूँ।’’

‘‘अपने आपको बादशाह समझोगे, क्यों मनोहर? और मैं बनूँगी रानी। पर मैं रानी बनने के बाद डाँड़ न चलाऊँगी, अभी से कहे देती हूँ।’’

‘‘तब मैं ही क्यों डाँड़ चलाने लगा। मैं बनूँगा राजा, और तुम बनोगी मेरी रानी, फिर डाँड़ चलाएँगे हमारे-तुम्हारे नौकर!’’

‘‘अच्छा—यह बात है!’’ कहकर तिन्नी खिलखिलाकर हँस पड़ी और दोनों हँसते हुए घाट की तरफ चले गये।

एक बड़ी नाव पर राजा साहब और उनके पुत्र कृष्णदेव अपने कई मुसाहिबों के साथ उस पार जाने के लिए बैठे। तिन्नी कई मछुओं और मनोहर के साथ डाँड़े चलाने लगी। तिन्नी नाव भी खेती जाती और साथ ही मनोहर से हँस-हँस कर बातें भी करती जाती थी। वायु के झोंकों के साथ उड़ते हुए उसके काले घुँघराले बाल उसकी सुन्दर मुखाकृति को और भी मोहक बना रहे थे। कृष्णदेव उसके मुँह की ओर किस स्थिरता के साथ देख रहे हैं, इस ओर तिन्नी का ध्यान ही न था। किन्तु राजा साहब से पुत्र की मानसिक अवस्था छिपी न रह सकी। युवा काल में उनके जीवन में कई ऐसे मौके आ चुके थे।

अब कृष्णदेव प्रायः प्रतिदिन ही जल-विहार के लिए नौका पर आते और डाँड़ चलाने का काम बहुधा तिन्नी ही किया करती। कृष्णदेव के मूक प्रेम और आकर्षण ने तिन्नी को भी उनकी तरफ बहुत कुछ आकर्षित कर लिया था। जिस समय कृष्णदेव नौका पर आते, उस समय अन्य मछुओं के रहते हुए भी तिन्नी स्वयं ही नौका चलाती।

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