लोगों की राय

परिवर्तन >> बिखरे मोती

बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

6 पाठक हैं

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

आज रामकिशोर जी कचहरी में कुछ काम न होने के कारण जल्दी ही लौट आये। मुन्नी की माँ बाहर गयी थीं। घर में पत्नी को कहीं न पाकर वे बहू की कोठरी की तरफ़ गये। बहू की दयनीय दशा को देखकर उनकी आँखें भर आयीं। आज चन्दन जीता होता तब भी क्या इसकी यही दशा रहती?अपनी भीरुता पर उन्होंने अपने आपको न जाने कितना धिक्कारा। उसकी धोती कई जगह से फटकर सी जा चुकी थी। उस धोती से लज्जा-निवारण भी कठिनाई से ही हो सकता था। बिछौने के नाम पर खाट पर कुछ चिथड़े पड़े थे। जमीन पर हाथ का तकिया लगाये वह पड़ी थी; उसे झपकी-सी लग गयी थी। पैरों की आहट पाकर संकोच से जरा घूँघट सरकाने के लिए उसने ज्यों ही धोती खींची, धोती फट गयी, हाथ का पकड़ा हुआ हिस्सा हाथ के साथ नीचे चला आया। रामकिशोर ने उसका कमल सा मुरझाया हुआ चेहरा और डबडबायी हुई आँखें देखीं। उनका हृदय स्नेह से कातर हो उठा। वे ममत्व भरे मधुर स्वर में बोले—तुमने खाना खा लिया है बेटी?

किशोरी के मुँह से निकल गया ‘नहीं’ फिर वह सँभल कर बोली—‘खा तो लिया है बाबू।’

रामकिशोर बोले—मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि तुमने नहीं खाया है।

किशोरी कुछ न बोली, उसका मुँह दूसरी ओर था, आँसू टपक रहे थे और वह नाखून से धरती खुरच रही थी।

रामकिशोर फिर बोले—तुमने नहीं खाया न? मुझे दुख है कि तुमने अपने बूढ़े ससुर की एक जरा सी बात न मानी।

किशोरी को बड़ी ग्लानि हो रही थी कि वह क्या उत्तर दे। कुछ देर में बोली—बाबू, मैंने आप की आज्ञा का पालन किया है। जो कुछ चौके में था खा लिया है, झूठ नहीं कहती।

रामकिशोर को विश्वास न हुआ। कहारिन को बुलाकर पूछा तो कहारिन ने कहा—मेरे सामने तो बहू ने कुछ नहीं खाया। माँजी ने चौका पहले ही से खाली कर दिया था, खाती भी तो क्या?

पत्नी की नीचता पर कुपित और बहू के सौजन्य पर रामकिशोर जी पानी-पानी हो गये। आज उनकी जेब में ५०) थे उसमें से दस निकालकर वे बहू को देते हुए बोले—यह रुपये रखो बेटी, तुम्हें यदि जरूरत पड़े तो खर्च करना। इसी समय आँधी की तरह मुन्नी की माँ कोठरी में प्रवेश किया। बीच से ही रुपयों को झपट कर छीन लिया, वह किशोरी के हाथ तक पहुँचने भी न पाये थे। गुस्से से तड़पकर बोली—बाप रे बाप! अंधेर हो गया; कलजुग जो न करावे सो थोड़ा ही है। अपने सिर पर की चाँदी की तो लाज रखते। बेटी-बहू के सूने घर में घुसते तुम्हें लाज भी न आयी? तुम्हारे ही सर चढ़ाने से तो यह इतनी सर चढ़ी है। पर मैं न जानती थी कि बात इतनी बढ़ चुकी है। इस बुढ़ापे में गढ़ ही में जा के गिरे। राम, राम,! इस पापी के बोझ से तो धरती दबी जाती है।

वे तीर की तरह कोठरी से निकल गयीं। उनके पीछे ही रामकिशोर भी चुपचाप चले गये। वे बहुत वृद्ध तो न थे; परन्तु जीवन में नित्य होने वाली इन घटनाओं और जवान बेटे की मृत्यु से वे अपनी उमर के लिहाज से बहुत बूढ़े हो चुके थे। ग्लानि और क्षोभ से वे बाहर की बैठक में जाकर लेट गये। उन्हें रह-रहकर चन्दन की याद आ रही थी। तकिये में मुँह छिपाकर वह रो उठे। पीछे से आकर मुन्नी ने पिता के गले में बाँह डाल दीं, पूछा—क्यों रोते हो बाबू? रामकिशोर ने विरक्त भाव से कहा—अपनी किस्मत के लिए बेटी।

सबेरे मुन्नी ने भौजी के मुँह से भी किस्मत का नाम सुना था और उसके बाद उसे रोते देखा था। इस समय जब उसने पिता को भी किस्मत के नाम से रोते देखा तो उसने विस्मित होकर पूछा—किस्मत कहाँ रहती है बाबू? क्या वह अम्मा की कोई लगती है?

मुन्नी के इस भोले प्रश्न से दुःख के समय भी रामकिशोर जी को हँसी आ गयी और वे बोले—‘हाँ, वह तुम्हारी माँ की बहिन है।’

मुन्नी ने विश्वास का भाव प्रकट करते हुए कहा—तभी वह तुम्हें भी और भौजी को रुलाया करती है।

¤

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai