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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

घड़ी निकाल कर देखते हुए रामकिशोर बोले—अभी साढ़े नौ ही तो बजे हैं। मुझे कचहरी भी तो जाना है न?

मुन्नी की माँ तड़प कर बोलीं—जरूर तुमने सुन लिया होगा? दुलारी बहू ने नौ कहा था और तुम साढ़े नौ पर पहुँच गये तो इतना ही क्या कम किया? तुम उसकी बात झूठी होने दोगे! मैं तो कहती हूँ कि इस घर में नौकर-चाकर तक का मान-मुलाहिज़ा है पर मेरा नहीं। सब सच्चे और मैं झूठी—कहकर मुन्नी की माँ ज़ोर से रोने लगीं।

—मैं तो यह नहीं कहता कि तुम झूठी हो, घड़ी ही गलत हो गयी होगी? फिर इसमें रोने की तो कोई बात नहीं है।

यह कहते-कहते रामकिशोर जी स्नान करने चले गये। वे अपनी स्त्री के स्वभाव को अच्छी तरह जानते थे। किशोरी के साथ वह कितना दुर्व्यवहार करती है, यह भी उनसे छिपा न था। जरा-जरा सी बात पर किशोरी को मार देना और गाली दे देना तो बहुत ही मामूली बात थी। यही कारण था कि बहू के प्रति उनका व्यवहार बड़ा ही आदर और प्रेम पूर्ण होता था। किशोरी उनके पहिले विवाह की पत्नी के एकमात्र बेटे की बहू थी। विवाह के कुछ ही दिन बाद निर्दयी विधाता ने बेचारी किशोरी का सौभाग्य-सिन्दूर पोंछ दिया। उसके मायके में भी कोई न था। वह अभागिनी विधवा सर्वथा दया ही की पात्र थी। किन्तु ज्यों-ज्यों मुन्नी की माँ देखती कि रामकिशोर का व्यवहार बहू के प्रति बहुत ही स्नेह-पूर्ण होता जाता है त्यों-त्यों किशोरी के साथ उनका द्वेष भाव बढ़ता ही जाता। रामकिशोर अपनी इस पत्नी से बहुत दबते थे। इन सब बातों को जानते हुए भी वह किशोरी पर किये जाने वाले अत्याचारों को रोक न सकते थे। सौ बात की एक बात तो यह थी कि पत्नी के खिलाफ़ कुछ कह के वे अपनी खोपड़ी के बाल न नुचवाना चाहते थे। इसलिए बहुधा वे चुप ही रह जाया करते थे।

आज भी जान गये कि कोई बात ज़रूर हुई है और किशोरी को ही भूखी-प्यासी रहना पड़ेगा। इसलिए वे कचहरी जाने से पहिले किशोरी के कमरे की तरफ़ गये और कहते गये कि ‘भूखी न रहना बेटी। रोटी जरूर खा लेना नहीं तो मुझे बड़ा ही दुःख होगा।’

‘रोटी ज़रूर खा लेना नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा।’ रामकिशोर का वाक्य मुन्नी की माँ ने सुन लिया। उनके सिर से पैर तक आग लग गयी, मन-ही-मन सोचा—इस चुड़ैल पर इतना प्रेम! कचहरी जाते-जाते उसका लाड़ कर गये। खाना खाने के लिए खुशामद कर गये, मुझसे बात करने की भी फुर्सत न थी? खायगी खाना, देखती हूँ, क्या खाती है? अपने बाप का हाड़!

मुन्नी की माँ ने खाना खा चुकने के बाद, सब का सब खाना उठा कर कहारिन को दे दिया और चौका उठाकर बाहर चली गयीं। किशोरी जब चौके में गयी तो सब बरतन खाली पड़े थे। भात के बटुए में दो-तीन कन चावल के लिपटे थे। किशोरी ने उन्हीं को निकाल कर मुँह में डाल लिया और पानी पीकर अपनी कोठरी में चली आयी।

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