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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

परिचय के पश्चात् बड़ी देर तक अनेक साहित्यिक विषयों पर उनसे बड़ी ही रुचिकर बातें होती रहीं। चलने का प्रस्ताव करते ही, उन्होंने संध्या-समय भोजन का निमंत्रण दे डाला। इसे अस्वीकृत करना भी मेरी शक्ति के बाहर था। अतः दिन भर वहीं उनके साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और इन थोड़े-से घंटों में ही उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर मैं चकित हो गया। अब तक का मेरा आकर्षण सहसा भक्तियुग आदर से परिणत हो गया। भोजन के उपरान्त मुझे अपनी यात्रा प्रारंभ करनी ही पड़ी। परन्तु मार्ग भर मैं कुछ ऐसा अनुभव करता रहा जैसे कहीं मेरी कोई वस्तु छूट-सी गई है।

घर लौट कर मैंने उन्हें दो-एक पत्र लिखे, पर उत्तर एक का भी न मिला। विवश था, चुप ही रहना पड़ा। किन्तु उनकी कविताओं की खोज निरन्तर ही किया करता था। इधर कई महीनों से उनकी कविता भी देखने को नहीं मिली। न जाने क्यों, एक अज्ञात आशंका रह-रह कर मुझे भयभीत बनाने लगी। अन्त में एक दिन उनसे मिलने की ठान कर, घर से चल ही तो पड़ा। चलने के साथ ही बाईं आँख फड़की, और बिल्ली रास्ता काट गयी। इन अपशकुनों ने मेरी अनिश्चित आशंका को जैसे किसी भावी अमंगल का निश्चित रूप-सा दे दिया। वहाँ पहुँचकर देखा, मकान में ताला पड़ा है। हृदय धक् से हो गया। पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि कई महीने हुए उनके पिता का देहान्त हो गया है; उनके मामा आकर उन्हें अपने साथ लिवा ले गये। बहुत खोज करने पर भी मैं उनके मामा के घर का पता न पा सका। इस प्रकार वे, एक हवा के झोंके की तरह, मेरे जीवन में आयीं और चली भी गयीं; मैं उनके विषय में कुछ भी न जान सका।

दस वर्ष बाद—

एक दिन फिर मैं कहीं सफर में जा रहा था। बीच में एक बड़े जंक्शन पर गाड़ी बदलती थी। वहाँ पर दो लाइनों के लिए ट्रेन बदलती थी। मैं अपने कम्पार्टमेंट से उतरा, ठीक मेरे पास के ही थर्ड-क्लास के एक डिब्बे से एक स्त्री उतरी। उसका चेहरा सुन्दर, पर मुरझाया हुआ था; आँखें बड़ी-बड़ी, किन्तु दृष्टि बड़ी ही कातर थी। कपड़े साधारण और कुछ मैले-से थे। गोद में एक साल-भर का बच्चा था, आस-पास और भी दो-तीन बच्चे थे। मैंने ध्यान से देखा, यह वे ही थीं! मैं झपटकर उनके पास गया। अचानक मुँह से निकल गया ‘आप! यहाँ इस वेश में!!’

उन्होंने मेरी तरफ देखा, उनके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल गयी, बोलीं—क्या! आप हैं?

मैंने कहा—हाँ, हूँ तो मैं ही, पर आपने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया?

अब उनके संयम का बाँध टूट गया। उनकी आँखों से न जाने कितने बड़े-बड़े मोती बिखर गये। उन्होंने रुँधे हुए कंठ से कहा—लिखने-पढ़ने की बात अब आप मुझसे कुछ न पूछें।

इतने ही में एक तरफ से एक अधेड़ पुरुष आये। और आते ही शायद, उनके पास का मेरा खड़ा रहना उन सज्जन को न सुहाया। इसीलिए उन्हें बहुत बुरी तरह से झिड़ककर बोले—यहाँ खड़ी-खड़ी बातें कर रही हो, कुछ ख्याल भी है?

वे बोलीं—ये मेरे पिताजी के...वह अपना वाक्य पूरा भी न कर पायी थीं कि वे महापुरुष कड़क उठे—चलो भी, परिचय फिर हो लेगा।

उन्होंने मेरी तरफ एक बड़ी ही बेधक दृष्टि से देखा। दृष्टि में न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, और कितनी कातरता भरी थी। वे अपने पति के पीछे-पीछे चली गयीं।

प्लेटफार्म पर खड़ा मैं सोचता हूँ कि ये वही हैं या उनका भग्नावशेष।

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