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परिवर्तन >> बिखरे मोती

बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

निर्मला ने कहा—तुम्हारी ही तरह मैं भी बिना घर की हूँ बहिन! यदि इस घर पर मेरा कुछ भी अधिकार होता तो मैं तुम्हें इस कष्ट के समय कहीं भी न जाने देती। क्या करूँ, विवश हूँ। किन्तु तुम मेरा यह पत्र लेकर मेरे भाई ललितमोहन के पास जाओ, वे तुम्हारा सब प्रबन्ध कर देंगे। उनका स्थान तो तुम जानती ही हो, पर रात के समय पैदल जाना ठीक नहीं। यह रुपया लो, ताँगा कर लेना। ईश्वर पर विश्वास रखना बहन। जिसका कोई नहीं होता, उसका साथ परमात्मा देता है।

निर्मला ने दस रुपये बिट्टन को दिये। वह पत्र लेकर चली गयी। निर्मला घर में आयी; एक चटाई डाल कर बाहर बरामदे में ही पड़ रही। सबेरे उसकी आँख उस समय खुली जब रमाकान्त उठ चुके थे और उसकी माँ नहा कर पूजा करने की तैयारी कर रही थीं।

निर्मला नित्य की तरह उठ कर घर का सब काम करने लगी जैसे शाम की घटना की उसे कुछ याद ही न हो। यदि वह मार खाने के बाद कुछ अधिक बकझक करती या रोती-चिल्लाती तो कदाचित अपनी इस हरक़त पर रमाकान्त जी को इतना पश्चाताप न होता, जितना अब हो रहा था। उन्हें बार-बार ऐसा लगता कि जैसे निर्मला ठीक थी, वे भूल पर। उनसे ऐसी भूल और कभी न हुई थी। कल न जाने क्यों और कैसे वे निर्मला पर हाथ चला बैठे थे। उनका व्यवहार उन्हीं को सौ-सौ बिच्छुओं के दंश की तरह पीड़ा पहुँचा रहा था। वे अवसर ढूँढ़ रहे थे कि कहीं निर्मला उन्हें एकान्त में मिल जाय तो वे पश्चाताप के आँसुओं से उसके पैर धो दें और उससे क्षमा माँग लें। किन्तु निर्मला भी सतर्क थी, वह ऐसा मौका ही न आने देती थी। वह बहुत बच-बच कर घर का काम कर रही थी। उसके चेहरे पर कोई विशेष परिवर्तन न था, न तो यही प्रगट होता था कि खुश है और न यही कि नाराज़ है। हाँ, एक ही परिवर्तन था कि अब उसके व्यवहार में हुकूमत की झलक न थी। वह अपने को उन्हीं दो-तीन नौकरों में से एक समझती, जो घर में काम करने के लिए होते हैं मगर जिनका कोई अधिकार नहीं होता।

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